+ त्याग का क्रम -
अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठित:
त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन: ॥84॥
हिन्सादिक को छोड़कर, होय अहिंसा निष्ठ ।
राग व्रतों को भी तजे, हो चैतन्य प्रविष्ट ॥८४॥
अन्वयार्थ : [अव्रतानि] हिंसादिक पंच अव्रतों को [परित्यज्य] छोड करके, [व्रतेषु] अहिंसादिक व्रतों में [परिनिष्ठित:] निष्ठावान रहना, अर्थात् उनका दृढ़ता के साथ पालन करना; बाद में [आत्मनः] आत्मा के [परमं पदं] राग-द्वेषादि रहित परम वीतराग पद को [प्राप्य] प्राप्त करके [तान् अपि] उन व्रतों को भी [त्यजेत्] त्याग देना ।
Meaning : Give up vowlessness by following the vows with great sincerity. Once you attain supreme purity of the soul, give up (attachment to) the vows.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

प्रथम, हिंसादि अव्रतों का परित्याग करके, व्रतों में परिनिष्ठित होना । तत्पश्चात् उनका भी त्याग करना । क्या करके ? (प्राप्त करके) क्या प्राप्ति करके ? परमपद को, अर्थात् परम वीतरागतारूप क्षीणकषाय गुणस्थान (प्राप्त करके) । किसके उस पद को ? आत्मा के ॥८४॥

अव्रत-व्रत के विकल्प का परित्याग करने पर, परमपद की प्राप्ति किस प्रकार होती है? वह कहते हैं : -