+ लिंग-रहित को मुक्ति -
लिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भव:
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताऽऽग्रहा: ॥87॥
लिङ्ग देह आश्रित दिखे, आत्मा का भव देह ।
जिनको आग्रह लिङ्ग का, कभी न होय विदेह ॥८७॥
अन्वयार्थ : [लिङ्ग] लिङ्ग, अर्थात् नग्नपना आदि वेष [देहाश्रितं दृष्टं] शरीर के आश्रित देखा जाता है [देह एव] और शरीर ही [आत्मनः] आत्मा का [भव:] संसार है; [तस्मात्] इसलिए [ये लिङ्गकृताग्रहा:] जो लिङ्ग के ही आग्रही हैं, [ते] वे पुरुष [भवात्] संसार से [न मुच्यन्ते] नहीं छूटते हैं - मुक्त नहीं होते ।
Meaning : Physical insignia is dependent on the body. The body keeps the soul in sansAra. Hence, those who focus on the body, cannot attain liberation.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

लिङ्ग, अर्थात् जटाधारण, नग्नपना आदि - वह देहाश्रित दिखता है, अर्थात् शरीर के धर्मरूप मानने में आता है । देह ही आत्मा का भव, अर्थात् संसार है; इसलिए जो लिङ्ग में आग्रह रखते हैं, अर्थात् लिङ्ग ही मुक्ति का हेतु है - ऐसे अभिनिवेशवाले जो हैं, वे मुक्त नहीं होते । किससे? भव से (संसार से) ॥८७॥

'वर्णों में ब्राह्मण, गुरु हैं; इसलिए वही परमपद के योग्य हैं' -- ऐसा जो बोलता है, वह भी मुक्तियोग्य नहीं है, यह कहते हैं --