
प्रभाचन्द्र :
लिङ्ग, अर्थात् जटाधारण, नग्नपना आदि - वह देहाश्रित दिखता है, अर्थात् शरीर के धर्मरूप मानने में आता है । देह ही आत्मा का भव, अर्थात् संसार है; इसलिए जो लिङ्ग में आग्रह रखते हैं, अर्थात् लिङ्ग ही मुक्ति का हेतु है - ऐसे अभिनिवेशवाले जो हैं, वे मुक्त नहीं होते । किससे? भव से (संसार से) ॥८७॥ 'वर्णों में ब्राह्मण, गुरु हैं; इसलिए वही परमपद के योग्य हैं' -- ऐसा जो बोलता है, वह भी मुक्तियोग्य नहीं है, यह कहते हैं -- |