
प्रभाचन्द्र :
अव्रतीपने की अवस्था में होते विकल्पों के जाल का, व्रत ग्रहण करके विनाश करना तथा व्रतीपने की अवस्था में होते विकल्पों के जाल का, ज्ञानपरायण होकर, अर्थात् ज्ञानभावना में लीन होकर, परम वीतरागता की अवस्था में (उनका) विनाश करना । सयोगीजिन अवस्था में परात्मज्ञानसम्पन्न, अर्थात् पर / सर्व ज्ञानों में उत्कृष्ट जो आत्मज्ञान - जो केवलज्ञान, उससे सम्पन्न, अर्थात् युक्त होकर, स्वयं ही, अर्थात् गुरु आदि के उपदेश की अपेक्षा रखे बिना, (निरपेक्ष होकर) पर, अर्थात् सिद्धस्वरूप परमात्मा होना ॥८६॥ जैसे, व्रत का विकल्प, मुक्ति का हेतु नहीं है; वैसे लिङ्ग का विकल्प भी मुक्ति का हेतु नहीं है, यह कहते हैं : - |