+ भिन्न आत्मा की उपासना -
भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृश:
वर्तिर्दीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥97॥
जैसे दीप-संयोग से, वाती बनती दीप ।
त्यों परमात्मा ध्यान से, परमात्मा हो जीव ॥९७॥
अन्वयार्थ : [आत्मा] यह आत्मा [भिन्नात्मान] अपने से भिन्न आत्मा की [उपास्य] उपासना करके [तादृश] उन्हीं के समान [पर: भवति] परमात्मा होता है; [यथा] जैसे, [भिन्ना वर्ति:] दीपक से भिन्न बत्ती भी [दीप उपास्य] दीपक की उपासना करके (उसका सामीप्य प्राप्त करके) [तादृशी] उसके जैसी - दीपक-स्वरूप [भवति] हो जाती है ।
Meaning : Just as the wick of a lamp becomes like the lamp by worshipping (remaining close to) it the soul becomes like the worthy ones (Arihantas and Siddhas) by worshiping them.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

भिन्न आत्मा की, अर्थात् आराधक से पृथक्भूत अरहन्त-सिद्धरूप आत्मा की उपासना करके - आराधना करके; आत्मा, अर्थात् आराधक पुरुष; वैसा, अर्थात् अरहन्त -सिद्धस्वरूप समान; पर, अर्थात् परमात्मा होता है । यहाँ इसी का दृष्टान्त कहते हैं - बत्ती इत्यादि । जैसे, दीपक से भिन्न बत्ती, दीपक की उपासना, अर्थात् पाकर 'तादृश' (उस जैसी) होती है, अर्थात् दीपकरूप होती है; उसी प्रकार ॥९७॥

अब, अभिन्न आत्मा की उपासना का फल कहते हैं : -