
प्रभाचन्द्र :
दुःख बिना, अर्थात् कायक्लेशादि के कष्ट बिना, सुकुमार उपक्रम से भाने में आया हुआ, अर्थात् एकाग्रता से मन में बारम्बार चिन्तन किया हुआ ज्ञान, अर्थात् शरीरादि से भिन्न आत्मस्वरूप का परिज्ञान, क्षय पाता है - क्षीण होता है । कब? दु:ख की सन्निधि में (उपस्थिति में) -दुःख आ पड़ने पर । इसलिए यथाशक्ति, अर्थात् अपनी शक्ति का उल्लंघन किए बिना, मुनि (योगी) को दुःख से आत्मा की भावना भाना, अर्थात् काय-क्लेशादिरूप कष्टों से, आत्म-स्वरूप की भावना करना - कष्ट सहकर, सदा आत्म-स्वरूप का चिन्तवन करना - ऐसा अर्थ है ॥१०२॥ यदि आत्मा, शरीर से सर्वथा भिन्न होवे तो उसके चलने से शरीर नियम से क्यों चलता है और उसके खड़े रहने से वह (शरीर) नियम से क्यों खड़ा रहता है? - ऐसी शङ्का करनेवाले के प्रति कहते हैं -- |