
प्रभाचन्द्र :
स्वप्न में, अर्थात् स्वप्न-अवस्था में देखने में आए हुए शरीरादि का नाश होने पर भी जैसे आत्मा का नाश नहीं होता; इसी तरह जागृत-अवस्था में भी देखने में आते हुए शरीरादि का नाश होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता । स्वप्न-अवस्था में भ्रान्ति के कारण, आत्मा का विनाश प्रतिभासित होता है - ऐसी शङ्का की जावे तो अन्यत्र भी (जागृत-अवस्था में भी) वह समान है । भ्रान्ति-रहित मनुष्य, शरीर का विनाश होने पर, आत्मा का विनाश वास्तव में नहीं मानता; इसलिए दोनों में (स्वप्न-अवस्था में और जागृत-अवस्था में) भी विपर्यास में (भ्रान्ति में) अन्तर नहीं होने से (भ्रान्ति, समान होने से) आत्मा का विनाश नहीं होने पर भी, (उसका) विनाश प्रतिभासित होता है; उसी प्रकार ऐसी भ्रान्ति जागृत-अवस्था में भी होती है ॥१०१॥ अनादि-निधन आत्मा प्रसिद्ध होने पर भी, उसकी मुक्ति के लिए दुर्द्धर तपश्चरणरूप क्लेश करना व्यर्थ है क्योंकि ज्ञानभावनामात्र से ही मुक्ति की सिद्धि है - ऐसी आशङ्का करके कहते हैं :-- |