+ अज्ञान से राग-द्वेष द्वारा संसार परिभ्रमण -
रागद्वेषद्वयीदीर्घ - नेत्राकर्षण- कर्मणा
अज्ञानात्सुचिरं जीव:, संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥11॥
मथत दूध डोरीनितें, दंड फिरत बहु बार
राग द्वेष अज्ञान से, जीव भ्रमत संसार ॥११॥
अन्वयार्थ : यह जीव अज्ञान से रागद्वेषरूपी दो लम्‍बी डोरियों की खींचातानी से संसाररूपी समुद्र में बहुत काल तक घूमता रहता है- परिवर्तन करता रहता है ।
Meaning : Our soul, due to nescience (ajnana), keeps on pulling either end of the long rope - one end symbolizing attachment (raga) and the other aversion (dvesa) - and, as a consequence, whirls round in the cycle of births and deaths (samsara) for a very long time.

  आशाधरजी 

आशाधरजी : संस्कृत
अन्‍वय - असौ जीव: अज्ञानात् रागद्वेषद्वयीदी्र्घनेत्राकर्षणकर्मणा संसाराब्‍धौ सुचिरं भ्रमति ।
टीका - भ्रमति संसरति । कोअसौ, असौ जीवश्‍चेतन: । क्‍व, संसाराब्‍धौ संसार: द्रव्‍यपरिवर्तनादिरूपो भवोअब्धि: समुद्र इव दु: खहेतुत्‍वादु दुस्‍तरत्‍वाच्‍च तस्मिन् । कस्‍मात्, अज्ञानात् देहादिष्‍वात्‍मविभ्रमात् । कियत्‍कालं, सुचिरम् अतिदीर्घकालम् । केन, रागेत्‍यादि । राग इष्‍टे वस्‍तुनि प्रीति:, द्वेषश्‍चानिष्‍टेअप्री-तिस्‍तयोर्द्वयी । रागद्वेषयो: शक्तिव्‍यक्तिरूपतया युगपत् प्रवृत्तिज्ञापनार्थ द्वयीग्रहणम्, शेषदोपाणां च तद्द्वयप्रतिबद्धत्‍ववोधनार्थम् । तथा चोक्‍तम् –
‘यत्र राग: पदं धत्‍ते द्वेषस्‍तत्रेति निश्‍चय: । उभावेतौ समालम्‍ब्‍य, विक्रमत्‍यधिकं मन: ॥’
अपि च – “आत्‍मनि सति परसंज्ञा स्‍वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ । अनयो: संप्रतिबद्धा: सर्वे दोषाश्‍च जायन्‍ते ॥” सा दीर्घनेत्रायतमन्‍थाकर्षणपाश इव भ्रमणहेतुत्‍वातस्‍यापकर्षणकर्मजीवस्‍य रागादिरूपतया परिणमनं नेत्रस्‍यापकर्षणत्‍वाभिमुखानयनम् तेन अत्रोपमानभूतो मन्‍थदण्‍ड आक्षेप्‍यस्‍तेन यथा नेत्राकर्षणव्‍यापारे मन्‍थचल: समुद्रे सुचिरं भ्रान्‍तो लोके प्रसिद्धस्‍तथा स्‍वपरविवेककानवबोधाद् यदुद्भूतेन रागादिपरिणामेन कारणकार्योपचारातज्‍जनितकर्मबन्‍धेन संसारस्‍थो जीवाअनादिकालं संसारे भ्रान्‍तो भ्रमति भ्रमिष्‍यति । भ्रमतीत्‍यवतिष्‍ठन्‍ते पर्वता इत्‍यादिवत् नित्‍यप्रवृत्‍ते लटा विधानान्र । उक्‍तं च –
जो खलु संसारत्‍यो, जीवो ततो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्‍मं, कम्‍मादो हवदि गदि सु गदी ॥१२८॥ गदिमधिगदस्‍स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते । तेहिं दु विसयग्‍गहणं, तत्‍तो रागो व दोसो वा ॥१२१॥
जायदि जीवस्‍सेवं भावो संसारचक्‍कवालंमि । इदि जिणवरेहिं भणिदो, अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥१३०॥
अथ प्रतिपाद्य: पर्यनृयुद्वते- तस्मिन्‍नपि यदि सुखी स्‍यात् को दोष इति भगवन् संसारेअपि, न केवलं मोक्ष इत्‍यपिशबदार्थ- । चेज्‍जीव: सुखयुक्‍तो भवेत् तर्हि को न कश्चिद् दोषो दुष्‍टत्‍वं संसारस्‍य सर्वेषां सुखस्‍यैव आप्‍तुमिष्‍टवात्, येन संसारच्‍छेदाय सनतो यतेरन्नित्‍यवाह- वत्‍स !


द्रव्‍य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पंच-परावर्तनरूप संसार, जिसे दु:ख का कारण और दुस्‍तर होने से समुद्र के समान कहा गया है, उसमें अज्ञान से- शरीरादिकों में आत्‍मभ्रांति से अति दीर्घ काल तक घूमता रहता है । इष्‍ट वस्‍तु में प्रीति होने को राग और अनिष्‍ट वस्‍तु में अप्रीति होने को द्वेष कहते हैं । उनकी शक्ति और व्‍यक्तिरूप से हमेशा प्रवृत्ति होती रहती है, इसलिये आचार्यों ने इन दोनों की जोड़ी बतलाई है । बाकी के दोष इस जोड़ी में ही शामिल हैं, जैसा कि कहा गया है :- 'जहाँ राग अपना पाँव जमाता है, वहाँ द्वेष अवश्‍य होता है या हो जाता है, यह निश्‍चय है । इन दोनों (राग-द्वेष) के आलम्‍बन से मन अधिक चंचल हो उठता है । और जितने दोष हैं, वे सब राग-द्वेष से संबद्ध हैं,' जैसा कि कहा गया है --

'निजत्‍व के होने पर 'पर' का ख्‍याल हो जाता है और जहाँ निज-पर का विभाग (भेद) हुआ, वहाँ निज में रागरूप और पर में द्वेषरूप भाव हो ही जाते हैं । बस इन दोनों के होने से अन्‍य समस्‍त दोष भी पैदा होने लग जाते हैं । कारण कि वे सब इन दोनों के ही आश्रित हैं ।'

वह राग-द्वेष की जोड़ी तो हुई मंथानी के डंडे की घुमानेवाली रस्‍सी को फाँसा के समान और उसका घूमना कहलाया जीव का रागादिरूप परिणमन । सो जैसे लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि नेतरी के खींचा-तानी से जैसे मंथराचल पर्वत को समुद्र में बहुत काल तक भ्रमण करना पड़ा, उसी तरह स्‍वपर विवेकज्ञान न होने से रागादि परिणामों के द्वारा जीवात्‍मा अथवा कारण में कार्य का उपकार करने से, रागादि परिणाम जनित कर्म-बंध के द्वारा बँधा हुआ संसारी जीव, अनादिकाल से संसार में घूम रहा है, घूमा था और घूमता रहेगा । मतलब यह है कि रागादि परिणामरूप भाव-कर्मों से द्रव्‍य-कर्मों का बन्‍ध होता है । ऐसा हमेशा से चला आ रहा है और हमेशा तक चलता रहेगा । सम्‍भव है कि किसी जीव के यह रूक भी जाय । जैसाकि कहा गया है: - 'जो संसार में रहने वाला जीव है, उसका परिणाम (रागद्वेष आदिरूप परिणमन) होता है, उस परिणाम से कर्म बँधते हैं, बँधे हुए कर्मों के उदय होने से मनुष्‍यादि गतियों में गमन होता है, मनुष्‍यादि गति में प्राप्‍त होने वाले को (औदारिक आदि) शरीर का जन्‍म होता है, शरीर होने से इंद्रियों की रचना होती है, इन इंद्रियों से विषयों (रूप-रसादि) का ग्रहण होता है, उससे फिर राग और द्वेष होने लग जाते हैं । इस प्रकार जीव का संसाररूपी चक्रवात में भवपरिभ्रमण होता रहता है, ऐसा जिनेन्‍द्रदेव ने कहा है । जो अनादिकाल से होते हुए अनन्‍तकाल तक होता रहेगा । हाँ, किन्‍हीं भव्‍य जीवों के उसका अन्‍त भी हो जाता है ।' ॥११॥

यहाँ पर शिष्‍य पूछता है कि स्‍वामिन् ! माना कि मोक्ष में जीव सुखी रहता है, किन्‍तु संसार में भी यदि जीव सुखी रहे तो क्‍या हानि है ? कारण कि संसार के सभी प्राणी सुख को ही प्राप्‍त करना चाहते हैं । जब जीव संसार में ही सुखी हो जाय तो फिर संसार में ऐसी क्‍या खराबी है ? जिससे कि संत उसके नाश करने के लिये प्रयत्‍न किया करते हैं ? इस विषय में आचार्य कहते हैं - हे वत्‍स --