
आशाधरजी : संस्कृत
अन्वय - यावत् भवपदावर्ते पदिका इव विपत् अतिवाह्राते तावत् अन्या: प्रचुरा: विपद: पुर: भवन्ति । टीका - यावदतिबाह्यते अतिक्रम्यते प्रेर्यते । कासौ, विपत् सहजशारीरमानसागन्तुकानामापदां मध्ये या काप्येका विवक्षिता आपत् । जीवेनेति शेष: । क्व, भवपदावर्ते भव: संसार: पदावर्त इव पादचाल्यघटी- यन्त्रमिव, भूयोभूय: परिवर्तमानत्वात् । केव, पदिकेव पादाक्रान्तदण्डिका यथा तावद् भवन्ति । का, अन्या अपूर्वा: प्रचुरा बह्रयो विपद: आपद: पुरो अग्रे जीवस्य यदि । का इव, काछिकस्येति सामर्थ्यादुर्व्या । अतो जानीहि दु:खैकनिबन्धनविपत्तिनिरन्तरत्वात् संसारेअवश्यविनाशयत्वम् । पुन: शिष्य एवाह- न सर्वे विपद्वन्त: ससंपदोअपि दृश्यन्त इति भगवन् समस्ता अपि संसारिणो न विपत्तियुक्ता: सन्ति, सश्रीकाणामपि केषांचिद् दृश्यमानत्वादित्यत्राह – पैर से चलाये जानेवाले घटीयंत्र को पदावर्त कहते हैं, क्योंकि उसमें बार बार परिवर्तन होता रहता है । सो जैसे उसमें पैर से दबाई गई लकडी या पटलों के व्यतीत हो जाने के बाद दूसरी पटलियाँ आ उपस्थित होती हैं, उसी तरह संसाररूपी पदावर्त में एक विपत्ति के बाद दूसरी बहुत सी विपत्तियाँ जीव के सामने आ खड़ी होती है । इसलिये समझो कि एकमात्र दु:खों की कारणभूत विपत्तियों का कभी भी अन्तर न पड़ने के कारण यह संसार अवश्य ही विनाश करने योग्य है । अर्थात् इसका अवश्य नाश करना चाहिये ॥१२॥ फिर शिष्य का कहना है कि भगवन् ! सभी संसारी तो विपत्तिवाले नहीं हैं, बहुत से सम्पत्ति वाले भी दिखने में आते हैं । इसके विषय में आचार्य कहते है- |