
आशाधरजी : संस्कृत
अन्वय - ज्वरवान् सर्पिषा इव कोअपि जन: दुरज्र्येन असुरक्षेण धनादिना स्वस्थंमन्य: (भवति) । टीका - भवति । कोअसौ, जनो लोक: । किंविशिष्ट: कोअपि निर्विवेको न सर्व: । किंविशिष्टो भवति, स्वस्थंमन्य: स्वस्थमात्मानं मन्यमानो अहं सुखीति । मन्यत इत्यर्थ: । केन कृत्वा, धनादिना द्रव्यकामिन्यादोष्टवस्तुजातेन । किंविशिष्टेन, दुरज्जयेंन अपायबहुलत्वात् दुर्घ्यानावेशाच्च दु:खेन महता कष्टनोर्जित इति दुरर्ज्येन । तथा असुरक्ष्येण दुस्त्राणेन यत्ततो रक्ष्यमाणस्याप्यपावश्यंभावित्वात् । तथा नश्वरेण रक्ष्यमाणस्यापि विनाशसंभवादशाश्वतेन । अश्र दृष्टान्तमाह-ज्वरेत्यादि । इवशब्दो यथार्थे । यथा कोअपि मुगधो ज्वरवान् अतिशयेन मतेविनाशात् सामज्वरार्त: सर्पिषा घ्ज्ञृतेन पानाद्युपयुक्तेन भवति निरामयमात्मानं मन्यते । ततो बुद्धयस्व दुरूपार्ज्यदूरक्षणभंगगुरद्रव्यादिना दु:खमेव स्यात् । उक्त च -- “अर्थस्योपार्जने दु:खमर्जितस्य च रक्षणे । आये दु:खं व्यये दु:खं, धिगर्थं दु:खभाजनम् ॥” भूयोपि विनेय: पृज्छति – एवंबिधां संपदा कथं त्यजतीति । अनेन दुरर्जत्वादिप्रकारेण लोकद्वयेअपि दु:खदां धनादिसंपत्ति कथं मुंचति न जन: । कथमिति विस्मयगर्भे प्रश्ने । अत्र गुरूरूत्तरमाह - जैसे कोई एक भोला प्राणी जो सामज्वर (ठंड देकर आनेवाले बुखार) से पीडि़त होता है, वह बुद्धि के ठिकाने न रहने से, बुद्धि के बिगड़ जाने से, घी को खाकर या उसकी मालिश कर लेने से अपने आपको स्वस्थ्य / निरोग मानने लगता है, उसी तरह कोई-कोई धन, दौलत, स्त्री आदिक जिनका कि उपार्जित करना कठिन तथा जो रक्षा करते भी नष्ट हो जानेवाले हैं -- ऐसे इष्ट वस्तुओं से अपने आपको 'मैं सुखी हूँ' ऐसा मानने लग जाते हैं, इसलिए समझो कि जो मुश्किलों से पैदा किये जाते तथा जिनकी रक्षा बड़ी कठिनाई से होती है, तथा जो नष्ट हो जाते हैं, स्थिर नहीं रहते, ऐसे धनादिकों से दु:ख ही होता है, जैसे कि कहा है -- 'धन के कमाने में दु:ख, रक्षा करने में दु:ख, उसके जाने में दु:ख इस तरह हर हालत में दु:ख के कारणरूप धन को धिक्कार हो' । फिर भी शिष्य पूछता है कि बड़े आश्चर्य की बात है कि जब 'मुश्किलों से कमायी जाती' आदि हेतुओं से धनादिक सम्पत्ति दोनों लोकों में दु:ख देनेवाली है, तब ऐसी सम्पत्ति को लोग छोड़ क्यों नहीं देते ? आचार्य उत्तर देते हैं -- |