
आशाधरजी : संस्कृत
अन्वय - आत्मा, लोकालोकविलोकन: अत्यन्तसौख्यवान् तनुमात्र: निरत्यय: स्व-संवेदन सुव्यक्त: ( अस्ति ) । टीका - अस्ति । कोअसौ, आत्मा । कीदृश: लोकालोकविलोकन: लोको जीवाद्याकीर्णमाकाशं ततोअन्यदलोक:, तौ विशेषेध अशेषविशेषनिष्ठतया लोकते पश्यति जानाति । एतेन “ज्ञानशून्यं चैतन्यमात्रमात्मा” इति सांख्यमतं बुद्धयादिगुणोज्झित: पुमानिति योगमतं च प्रत्युक्तम् । प्रतिध्वस्तश्च नैरात्म्यवादो बोद्धानाम् । पुन: कोदृश:, अत्यन्तसौख्यवान् अनन्तसुखस्वभाव: । एतेन सांख्यगोगतन्त्रं प्रत्याहतम् । पुनरपि कीदृशस्तनुमात्र: स्वोपात्त्शरीरपरिमाण: । एतेन व्यापकं वटकणिकामात्रं चात्मानं वदन्तौ प्रत्याख्यातौ । पुनरपि कीदृश:, निरत्यय: द्रव्यरूपतया नित्य: । एतेन व्यापकं वटकणिकामात्रं चात्मानं वदन्तौ प्रत्याख्यातौ । पुनरपि कीदृश:, निरत्यय: द्रव्यरूपतया नित्य: । एतेन गर्भादिमरणपर्यन्तं जीवं प्रतिजानानश्चार्वाको निराकृत: । ननु प्रमाणसिद्धे वस्तुन्येवं गुणवाद: श्रेयान्न चात्मस्तथा प्रमाणिसिद्धत्व-मस्तीत्यारेकायामाह- स्वसंवेदनसुव्यक्त इति । “वेद्यत्वं वेदकत्वं च, यत् स्वस्य स्वेन योगिन: । तत् स्व-संवेदन प्राहुरात्मनोअनुभवं दृढम् ॥१६१॥ इत्येवंलक्षणस्वसंवेदनप्रत्यक्षेण सकलप्रमाणधुर्येण सुष्ठु उक्तै: गुणै: संपूणतया व्यक्त: विशदत-यानुभूतो योगिभि:स्वेकदेशेन । अत्राह शिष्य:-यद्येवमात्मास्ति, तस्योपास्ति: कथमिति स्पष्टमात्मसेवोपायप्रश्नोअयम् । गुरूराह- जीवादिक द्रव्यों से घिरे हुए आकाश को लोक और उससे अन्य सिर्फ आकाश को अलोक कहते हैं । उन दोनों को विशेषरूप से उनके समस्त विशेषों में रहते हुए जो जानने देखनेवाला है, वह आत्मा है । ऐसा कहने से
'जो योगी को खुद का वैद्यत्व व खुद के द्वारा वेदकत्व होता है, बस वही स्व-संवेदन कहलाता है । अर्थात् उसी को आत्मा का अनुभव व दर्शन कहते हैं । अर्थात् जहाँ आत्मा ही ज्ञेय और आत्मा ही ज्ञायक होता है, चैतन्य की उस परिणति को स्व-संवेदन प्रमाण कहते हैं । उसी को आत्मानुभव व आत्म-दर्शन भी कहते हैं । इस प्रकार के स्वरूपवाले स्व-संवेदन-प्रत्यक्ष (जो कि सब प्रमाणों में मुख्य या अग्रणी प्रमाण है) से तथा कहे हुए गुणों से सम्पूर्णतया प्रकट व आत्मा योगिजनों को एकदेश विशदरूप से अनुभव में आता है' ॥२१॥ यहाँ पर शिष्य कहता है, कि यदि इस तरह का आत्मा है तो उसकी उपासना कैसे की जानी चाहिये ? इसमें आत्म-ध्यान या आत्म-भावना करने के उपायों को पूछा गया है । आचार्य कहते हैं -- |