+ मन और इन्द्रियों को वश में कर ध्यान करें -
संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतस:
आत्मानमात्मवान् ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थितम् ॥22॥
मन को कर एकाग्र, सब इंद्रिय-विषय मिटाय
आतमज्ञानी आत्‍म में, निज को निज से ध्‍याय
अन्वयार्थ : मन की एकाग्रता से इन्द्रियों को वश में कर ध्‍वस्‍त-नष्‍ट कर दी है स्‍वच्‍छन्‍द वृत्ति जिसने ऐसा पुरूष अपने में ही स्थित आत्‍मा को अपने ही द्वारा ध्‍यावे ।
Meaning : The man who has overpowered his senses through the fire of concentration of the mind should, seated in his own Self, contemplate on the Self, through the medium of the Self.

  आशाधरजी 

आशाधरजी : संस्कृत
अन्‍वय – करणग्रामं संयम चैतस: एकाग्रत्‍वेन आत्‍मवान् आत्‍मनि स्थितं आत्‍मानं आत्‍म्‍ना एव ध्‍यायेत् ।
टीका- ध्‍यायेत् भावयेत् । कोअसौ, आत्‍मवान् गुप्‍तेन्द्रियमना अध्‍वस्‍तस्‍यावत्‍तवृत्तिर्वा । कं, आत्‍मनं यथोक्‍तस्‍वभावं पुरूषम् । केन, आत्‍मनैव स्‍वसंवेदनरूपेण स्‍वेनैव तज्‍ज्ञप्‍तौ करणान्‍तराभावात् । उक्‍तं च-
“स्‍वपरज्ञप्तिरूपत्‍वात्, न तस्‍य कारणान्‍तरम् । ततश्चिन्‍तां परित्‍यज्‍य, स्‍वसंवित्‍यैव वेद्यताम्” ॥१६२॥
क्‍व तिष्‍ठन्‍तमित्‍साह, आत्‍मनि स्थितं वस्‍तुत: सर्वभावानां स्‍वरूपमात्राधारत्‍वात् । किं कृत्‍वा ? संयम्‍य रूपादिभ्‍यो व्‍यावृत्‍य । किं, करणग्रामं चक्षुरादीन्द्रियगणम् । केनोपायेन, एकाग्रत्‍वेन एकं विवक्षितमात्‍मानं तद् द्रव्‍यं पर्यायो वा अग्रं प्राघान्‍येनालम्‍बनं विषयो यस्‍य अथवा एकं पूर्वापरपर्यायाअनुस्‍यूत अग्रमात्‍मग्राह्रां यस्‍य तदेकाग्रं तद्भावेन । कस्‍य, चेतसो मनस: । अयमर्थो यत्र क्‍वचिदात्‍मन्‍येव वा श्रुतज्ञानावष्‍टम्‍भात् आलम्बितेन मनसा इन्द्रियाणि निरूद्धय स्‍वात्‍मानं च भावयित्‍वा तत्रैकाग्रतामासाद्य चिन्‍तां त्‍यक्‍त्‍वा स्‍वयंवेदनेनैवात्‍मान मनुभवेत् । उक्‍तं च –
“गहियं तं सुअणाणा, पच्‍छा संवेयणेण भाविज्‍जा । जो ण हु सुयमवलंवइ, जो सुज्‍जइ अप्‍पसब्‍भावो ॥” अनगारघर्मामृते तृतीयोअध्‍याय: पृ० १७० ॥
तथाच ”प्राच्‍याव्‍य विषयेभ्‍योअहं, मां मयैव मयि स्थितम् । बोधात्‍मनं प्रपन्‍नोअस्मि परमानंदनिर्वृतम्
अथाह शिष्‍य: आत्‍मोहपासनया किमिति भगवन्‍नात्‍मसेवमसेवनया किं प्रयोजनं स्‍यात् फलप्रतिपतिपूर्वकत्‍वात्‍प्रेक्षावत्‍प्रवृत्‍तोरिति पृष्‍ट: सन्‍नाचष्‍टे - ॥२२॥


जिसने इन्द्रिय और मन को रोक लिया है अथवा जिसने इन्द्रिय और मनकी उच्‍छृंखल एवं स्‍वैराचारूप प्रवृति को ध्‍वस्‍त कर दिया है, ऐसा आत्‍मा, जिसका स्‍वरूप पहिले बता आये हैं, आत्‍मा को आत्‍मा से ही यानी स्‍व-संवेदन रूप प्रत्‍यक्ष ज्ञान से ही ध्‍यावे, कारण कि स्‍वयं आत्‍मा में ही उसकी ज्ञप्ति (ज्ञात) होती है । उस ज्ञप्तिमें और कोई करणान्‍तर नहीं होते । जैसा कि तत्‍वानुशासनमें कहा है --

'वह आत्‍मा स्‍वपर-प्रतिभासस्‍वरूप है । वह स्‍वयं ही स्‍वयं को जानता है, और पर को भी जानता है । उसमें उससे भिन्न अन्‍य करणों की आवश्‍यकता नहीं है । इसलिये चिन्‍ता को छोड़कर स्‍वसंवित्ति-स्‍व-संवेदन के द्वारा ही उसे जानो, जो कि खुद में ही स्थित है । कारण कि परमार्थ से सभी पदार्थ स्‍वरूप में ही रहा करते हैं । इसके लिये उचित है कि मन को एकाग्र कर चक्षु आदिक इन्द्रियों की अपने अपने विषयों (रूप आदिकों) से व्‍यावृत्ति कर ।' यहाँ पर संस्‍कृत-टीकाकार पंडित आशाधरजी ने 'एकाग्र' शब्‍द के दो अर्थ प्रदर्शित किये हैं । एक कहिये विवक्षित कोई एक आत्‍मा, अथवा कोई एक द्रव्‍य अथवा पर्याय, वही है अग्र कहिये प्रधग्‍नता से आलंम्‍बनभूत विषय जिसका ऐसे मन को कहेंगे 'एकाग्र' अथवा एक कहिये पूर्वापर पर्यायों में अविच्छिन्‍न रूप से प्रवर्तनमान द्रव्‍य- आत्‍मा वही है, अग्र-आत्‍मग्राह्य जितना ऐसे मन को एकाग्र कहेंगे ।

सारांश यह है कि जहाँ कहीं अथवा आत्‍मा में ही श्रुतज्ञान के सहारे से भावनायुक्‍त हुए मन के द्वारा इन्द्रियों को रोक कर स्‍वात्‍मा की भावना कर उसी में एकाग्रता को प्राप्‍त कर चिन्‍ता को छोड़कर स्‍व-संवेदन के ही द्वारा आत्‍मा का अनुभव करे । जैसा कि कहा भी है-

'उस (आत्‍मा) को श्रुतज्ञान के द्वारा जानकर पीछे संवेदन (स्वसंवेदन) में अनुभव करे । जो श्रुतज्ञान का आलम्‍बन नहीं लेता वह आत्‍म-स्‍वभाव के विषय में गड़बड़ा जाता है' । इसी तरह यह भी भावना करे कि जैसा कि पूज्‍यापादस्‍वामी के समाधिशतक में कहा है --

'मैं इन्द्रियों के विषयों से अपने को हटाकर अपने में स्थित ज्ञानस्‍वरूप एवं परमानंदमयी आपको अपने ही द्वारा प्राप्‍त हुआ हूँ ।' ॥२२॥

यहाँ पर शिष्‍य का कहना है कि भगवन् ! आत्‍मा से अथवा आत्‍मा की उपासना करने से क्‍या मतलब सधेगा - क्‍या फल मिलेगा ! क्‍योंकि विचारवानों की प्रवृत्ति तो फलज्ञानपूर्वक हुआ करती है, इस प्रकार पूछे जाने पर आचार्य जवाब देते हैं --