
आशाधरजी : संस्कृत
अन्वय- अध्यात्मयोगेन परीषहाद्यविज्ञानात् आस्त्रवस्य निरोधिनी कर्मणां निर्जरा आशु जायते । टीका- जायते भवति । कासौ, निर्जरा एकदेशेन संक्षयो विश्लेष इत्यर्थ: । केषां कर्मणां सिद्धयोग्यपेक्षयाअशुमानां च शुभानां साध्ययोग्यपेक्षया त्वसद्वेद्यादीनाम् । कथमाशु सद्य: । केन, अध्यात्मयोगेन अध्यात्मन्यात्मन: प्रणिधानेन, किं केवला, नेत्याह-निरोधिनी प्रतिषेधयुक्ता । कस्यास्त्रवस्यागमनस्य कर्मणामित्यत्रापि योज्यम् । कुत इत्याह, परीषहाणां क्षुधादिदु:खभेदानामादिशब्दाद्दे-वादिकृतोपसर्गबाधानां चाविज्ञानादसंवेदनात् । तथा चोक्तम् – “यस्य पुण्यं च पापं च, निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं, न यस्य पुरास्त्रव: ॥२४६॥ “तथा ह्राचरमांगस्य, ध्यानमभ्यस्यत: सदा । निर्जरा संवरश्चास्य सकलाशुभकर्मणाम् ॥२२५॥ “आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हादनिर्वृत: । तपसा दु:ष्कृतं धोरं भुंजानोअति न खिद्यते ॥३४॥ एतच्च व्यवहारनयादुच्यते । कुत इत्याशंकायां पुनराचार्य एवाह- सा खलु कर्मणो भवति तस्य संबन्धस्तदा कथमिति । वत्स आकर्णय खलु यस्मात्सा एकदेशेन विश्लेषलक्षण निर्जरा कर्मण: चित्सामान्यानुविधायिपुद्गलपरिणामरूपस्य द्रव्यकर्मण: संबन्धिनो संभवति द्रव्ययोरेव संयोगपूर्वविभागसं-भवात् । तस्य च द्रव्यकर्मणस्तदा योगिन: स्वरूपमात्रावस्थानकाले संबनध: प्रत्यासत्तिरात्मना सह । कथं केन संयोगादिप्रकारेण संभवति ? सूक्ष्मेक्षिकया समीक्षस्व न कथमपि संभवतीत्यर्थ: । यदा खल्वात्मैव ध्यानं ध्येयं च स्तात्तदा सर्वात्मनाग्यात्मन: परद्रव्याद् व्यावृत्य स्वरूपमात्रवस्थितत्वात्कथं द्रव्यान्तरेण संबन्ध: स्यात्तस्य द्विवष्ठत्वात् । न चैतत्संसारिणो न संभवतीति वाच्यं । संसारतीरप्राप्तस्य योगिनो मुक्तात्मवत् पंचह्रस्वस्वरोच्चारणकालं यावत्तथावस्थानसंभवात् कर्मक्षणामिमुखस्य लक्षणोत्कृष्टशुक्ल-लेम्पासंस्कारावेशवशात्तावन्मात्रकर्मपारतन्त्र्यव्यवहारणात् । तथा चोक्तं परमागमे- “सोलेसिं संपत्तो, विरूद्धणिस्सेसआसवो जीवो ।कम्मरयविप्पमुक्को, गयजोगी केवली होदि” ॥६५॥ गोम्मटसार: जीवकांड । श्रूयतां चास्यैवार्थस्य संग्रहश्लोक: ॥२४॥ अध्यात्मयोग से आत्मा से आत्मा का ही ध्यान करने से कर्मों की निर्जरा (एक-देश से कर्मों का क्षय हो जाना, कर्मों का सम्बंध छूट जाना) हो जाती है । उसमें भी जो सिद्धयोगी हैं, उनके तो अशुभ तथा शुभ दोनों ही प्रकारों के कर्मों की निर्जरा हो जाती है । और जो साध्ययोगी हैं, उनके असातावेदनीय आदि अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है । कोरी निर्जरा होती हो सो बात नहीं है । अपितु भूख-प्यास आदि दु:ख के भेदों (परीषहों) की तथा देवादिकों के द्वारा किये गये उपसर्गों की बाधा को अनुभव में न लाने से कर्मों के आगमन (आस्रव) को रोक देनेवाली निर्जरा भी होती है । जैसा कि कहा भी है -- 'जिसके पुण्य और पापकर्म, बिना फल दिये स्वयमेव (अपने आप) गल जाते हैं – खिर जाते हैं, वही योगी है । उसको निर्वाण हो जाता है । उसके फिर नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता' । इस श्लोक द्वारा पुण्य-पापरूप दोनों ही प्रकार के कर्मों की निर्जरा होना बतलाया है । और भी तत्त्वानुशासन में कहा है -- 'चरमशरीरी को ध्यान का फल कह देने के बाद आचार्य अचरमशरीरी के ध्यान का फल बतलाते हुए कहते हैं कि -- जो सदा ही ध्यान का अभ्यास करनेवाला है, परन्तु जो अचरमशरीरी है, (तद्भव मोक्षगामी नहीं है) ऐसे ध्याता को सम्पूर्ण अशुभ कर्मों की निर्जरा व संवर होता है । अर्थात् वह प्राचीन एवं नवीन समस्त अशुभ कर्मों का संवर तथा निर्जरा करता है' । इस श्लोक द्वारा पापरूप कर्मों की ही निर्जरा व उनका संवर होना बतलाया गया है । और भी पूज्यपादस्वामी ने समाधिशतक में कहा है -- 'आत्मा व शरीर के विवेक (भेद) ज्ञान से पैदा हुए आनंद से परिपूर्ण (युक्त) योग, तपस्या के द्वारा भयंकर उपसर्गों व घोर परीषहों को भोगते हुए भी खेद-खिन्न नहीं होते हैं' । यह सब व्यवहारनय से कहा जाता है कि बन्धवाले कर्मों की निर्जरा होती हैं, परमार्थ से नहीं । कदाचित् तुम कहो कि ऐसा क्यों ? आचार्य कहते हैं कि वत्स ! सुनो, क्योंकि एकदेश में सम्बंध छूट जाना, इसी को निर्जरा कहते हैं । वह निर्जरा कर्म की (चित्सामान्य के साथ अन्वय व्यतिरेक रखनेवाले पुद्गलों के परिणामरूप द्रव्य-कर्म की) हो सकती है । क्योंकि संयोगपूर्वक विभाग दो द्रव्यों में ही बन सकता है । अब जरा बारीक दृष्टि से विचार करो कि उस समय जब कि योगी पुरुष स्वरूपमात्र में अवस्थान कर रहा है, उस द्रव्य-कर्म का आत्मा के साथ संयोगादि सम्बन्धों में से कौन-सा सम्बन्ध हो सकता है ? मतलब यह है कि किसी तरह का संबंध नहीं बन सकता । जिस समय आत्म ही ध्यान और ध्येय हो जाता है, उस समय हर तरह से आत्मा पर-द्रव्यों से व्यावृत होकर केवल स्वरूप में ही स्थित हो जाता है । तब उसका दूसरे द्रव्य से संबंध कैसा ? क्योंकि संबंध तो दो में रहा करता है, एक में नहीं होता है । यह भी नहीं कहना कि इस तरह की अवस्था संसारी-जीव में नहीं पाई जाती । कारण कि संसाररूपी समुद्र-तट के निकटवर्ती अयोगीजनों का मुक्तात्माओं की तरह पंच ह्रस्व अक्षर (अ इ उ ऋ लृ) के बोलने में जितना काल करता है, उतने काल तक वैसा (निर्बन्ध बन्ध रहित) रहना संभव है । शीघ्र ही जिनके समस्त कर्मों का नाश होनेवाला है ऐसे जीवों (चौदहवें गुणस्थानवाले जीवों) में भी उत्कृष्ट शुक्ल-लेश्या के संस्कार के वश से उतनी देर (पंच ह्रस्व अक्षर बोलने में जितना समय लगता है, उतने समय) तक कर्म परतन्त्रता का व्यवहार होता है जैसा कि परमागम में कहा गया है- 'जो शीलों के ईशत्व (स्वामित्व) को प्राप्त हो गया है, जिसके समस्त आस्रव रुक गये हैं, तथा जो कर्मरूपी धूली से रहित हो गया है, वह गतयोग-अयोगकेवली होता है' ॥२४॥ उपरिलिखित अर्थको बतलानेवाला और भी श्लोक सुनो -- |