
आशाधरजी : संस्कृत
अन्वय - अहं कटस्य कर्ता इति द्वयोर्द्वयो: संबन्ध: स्यात्, यदा आत्मैव ध्यानं ध्येयं तदा कीदृश: संबंध: । टीका - स्याद् भवेत् । कोसौ, संबन्ध: द्रव्यादिना प्रत्यासत्ति: । कयोर्द्वयो: कथंचिद् भिन्नयो: पदार्थयो: इति अनेन लोकप्रसिद्धेन प्रकारेण कथमिति यधाहभस्मि । कीदृश:, कर्ता निर्माता । कस्य, कटस्य बंशदलानां जलादिप्रतिबन्धाद्यर्थस्य परिणामस्य । एवं संबन्धस्य द्विष्ठता प्रदर्श्य प्रकृतेव्यतिरेकमाह । ध्यानमित्यादि ध्यायते येन ध्यायति या यस्तद्वयानं घ्यातिक्रियां प्रति करणं कर्ता वा । उक्तं च – 'ध्यामते येन तद्धयानं, यो ध्यामति स एव वा । यत्र वा ध्यायते यद्वा, ध्यातिर्वा ध्यानमिष्यते ?' ॥६७॥ ध्यायत इति ध्येयं या ध्यातिक्रियया ध्याप्यं । तदा यस्मिन्नात्मन: परमात्मना सर्हकीकरणकाले आत्मैव चिंमात्रमेव स्थात्तदा कीदृश: संयोगादिप्रकार: संबन्धो द्रवरूकर्मणा सहात्मन: स्यात् येन जायतेअध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरेति परमार्यत: कथ्यते । अत्राह शिष्य:- तर्हि कथं अप्रतिपक्षश्च मोक्ष इति भगवन् यद्यात्मकर्मबन्धसे, द्रव्ययोरध्यात्मयोगेन विश्लेष: क्रियते । तर्हि कथं केनोपायप्रकारेण तयोर्बन्ध: परस्परप्रदेशानुप्रवेशलक्षण: संश्लेष: स्यात् । तत्पूर्वकत्वाद्विश्लेषस्य कथं च तत्प्रतिपक्षो बन्धविरोधी मोक्ष: सकलकर्मविश्लेषलक्षओ जीवस्य स्यातस्यैवानन्तसुखहेतुत्वेन योगिभि: प्रार्थनीयत्वात् । गुरूगह - ॥२५॥ लोक-प्रसिद्ध तरीका तो यही है, कि किसी तरह भिन्न (जुदा जुदा) दो पदार्थों में संबंध हुआ करता है । जैसे बाँस की खपच्चियों से जलादि के संबंध में बननेवाली चटाई का मैं कर्ता हूँ- बनानेवाला हूँ । यहाँ बनानेवाला 'मैं' जुदा हूँ और बननेवाली 'चटाई' जुदी है । तभी उनमें 'कतृकर्म' नाम का संबंध हुआ करता है । इस प्रकार संबंध द्विष्ठ (दो में रहनेवाला) हुआ करता है । इस को बतलाकर, प्रकृत में वह बात (भिन्नता) बिलकुल भी नहीं है इसको दिखलाते हैं । 'ध्यायते येन, ध्यायति वा यस्तद् ध्यानं, ध्यातिक्रियां प्रति करणं कर्ता च' - जिसके द्वारा ध्यान किया जाय अर्थात् जो ध्यान करने में करण हो- साधन हो उसे ध्यान कहते हैं । तथा जो ध्याता है- ध्यान का कर्ता हैं, उसे भी ध्यान कहते हैं, जैसा कि कहा भी हैं- 'जो ध्यैत्र् चिन्तायाम्’ धातु का व्याप्य हो अर्थात् जो ध्याया जावे, उसे ध्येय कहते हैं । परन्तु जब आत्मा का परमात्मा के साथ एकीकरण होने के समय, आत्मा ही चिंमात्र हो जाता है, तब संयोगादिक प्रकारों में से द्रव्य-कर्मों के साथ आत्मा का कौन से प्रकार का संबंध होगा ? जिससे कि 'अध्यात्म-योग से कर्मों की शीघ्र निर्जरा हो जाती है' यह बात परमार्थ से कही जावे । भावार्थ यह है कि आत्मा से कर्मों का सम्बन्ध छूट जाना निर्जरा कहलाती है । परन्तु जब उत्कृष्ट अद्वैत ध्यानावस्था में किसी भी प्रकार कर्म का संबंध नहीं, तब छूटना किसका ? इसलिये सिद्धयोगी कहो या गतयोगी अथवा अयोगकेवली कहो, उनमें कर्मों की निर्जरा होती है, यह कहना व्यवहारनय से ही है, परमार्थ से नहीं' । ॥२५॥ यहाँ पर शिष्य का कहना है भगवन् ! यदि आत्म-द्रव्य और कर्म-द्रव्य का अध्यात्मयोग के बल से बंध न होना बतलाया जाता है, तो फिर किस प्रकार से उन दोनों में (आत्मा और कर्मरूप पुद्गल द्रव्यों में) परस्पर एक के प्रदेशों में दूसरे के प्रदेशों का मिल जाने रूप बंध होगा ? क्योंकि बन्धाभाव तो बंधपूर्वक ही होगा । और बंध का प्रतिपक्षी, सम्पूर्ण कर्मों को विमुक्तावस्था रूप मोक्ष भी जीव को कैसे बन सकेगा ? जो कि अविच्छिन्न अविनाशी सुख का कारण होने से योगियों के द्वारा प्रार्थतीय हुआ करता है ? आचार्य कहते हैं - |