+ ममत्व भाव बंध का करण, अत: हेय -
बध्यते मुच्यते जीव:, सममो निर्मम: क्रमात्
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ॥26॥
मोही बाँधत कर्म को, निर्मोही छुट जाय
यातें गाढ़ प्रयत्‍न से, निर्ममता उपजाय ॥२६॥
अन्वयार्थ : ममतावाला जीव बँधता है और ममता रहित जीव मुक्‍त होता है । इसलिये हर तरह पूरी कोशिश के साथ निर्ममता का ही ख्‍याल रक्खें ।
Meaning : The soul that entertains infatuation with the outside objects gets into bondage of karmas and the soul that entertains no such infatuation is freed from bondage. Try persistently, therefore, to renounce all infatuation.

  आशाधरजी 

आशाधरजी : संस्कृत
अन्‍वय - समम: निर्मम: जीव: क्रमात् बध्‍यते मुच्‍यते तस्‍मात् सर्वप्रयत्‍नेन निर्ममस्‍वं विचिन्‍तयेत् ।
टीका - ममेत्‍यव्‍यं ममेदमित्‍यभिनिवेशार्थमव्‍यानामनेकार्थत्‍वात् समभो ममेदमित्‍यभिनिवेशाविष्‍टो अहमस्‍येत्‍यभिनिवेशाविष्‍टश्‍चोपलक्षणत्‍वात् जीव: कर्मभिर्बध्‍यते । तथा चोक्‍तम् –
“न कर्मबहुलं जगन्‍नचलनात्‍मकं कर्म्‍म वा न नैककरणानिवान चिदचिद्विधो बन्‍धकृत । यदैक्‍यमुपय समुपयाति रागादिभि:, स एव किल केवलं भवति बन्‍धहेतुर्तृणाम्” ॥२॥ - नाटकसमयसार-कलशा: बन्‍धोअधिकार: ।- अनगारघर्मामृते षष्‍ठोअध्‍यायम: पृ० २०५
यदेक्‍यमुपयोगभूसमुपरौ अतिरागादिभि: स एव किल केवलं भवति बन्‍धहेतुर्नृणाम् । तथा स एव जीवो निर्ममस्‍तद्विपरीतस्‍तैर्मुच्‍यत इति यथासंख्‍येन योजनार्थ क्रमादित्‍युपात्‍ताम् । उक्‍तं च –
“अकिचनोअहमित्‍यास्‍च, त्रैलोक्‍याधिपतिर्भवे: । योगिगम्‍यं तव प्रोक्‍तं, रहस्‍यं परमात्‍मन:” ॥११०॥
अथवा “रागी बध्‍नाति कर्माणि, वीतरागी विमुंचति । जीवो जिनोपदेशअयं संक्षेपाद्बन्‍धमोक्षयो:” ॥
यस्‍मादेवं तस्‍मात्‍सर्वप्रयत्‍नेन व्रताद्यक्‍धानेन मनोवाक्‍कायप्रणिघानेन वा निर्ममत्‍वं विचिन्‍तयेत् ।
मत: कायादयो भिन्‍नास्‍तेभ्‍योअह‍मपि तत्त्वत: । नाहमेषां किमप्‍यस्मि ममाप्‍येते न किंचन ।१ इत्‍यादि श्रुतज्ञानभावनया मुमुक्षुविशेषेण भावयेत् । उक्‍तं च –
“निवृत्ति भावमेद्यावन्निर्वृत्ति तद्भावत: । न वृसिर्न निवृत्तिश्‍च, तदेव पदमव्‍ययं” ॥२६६॥
अथाह शिष्‍य:- कथं नु तदिति निर्ममत्‍वविचिन्‍तोपायप्रश्‍नोअयम् अथ गुरूस्‍तत्‍प्रक्रियां मम विज्ञस्‍य का स्‍पृहेति यावदुपदिशति - ॥२६॥


अव्‍ययों के अनेक अर्थ होते हैं, इ‍सलिये, 'मम' इस अव्‍यय का अर्थ 'अभिनिवेश' है, इसलिये 'समम' कहिये 'मेरा यह है' इस प्रकार के अभिनिवेश वाला जीव भी कर्मों से बँधता है । उपलक्षण से यह भी अर्थ लगा लेना कि 'मैं इसका हूँ' ऐसे अभिनिवेश वाला जीव भी बँधता है, जैसा कि अमृतचंद्राचार्य ने समयसार-कलश में कहा है -

'न तो कर्म-स्‍कंधों से भरा हुआ यह जगत् बंध का कारण है, और न हलन-चलनादि रूप क्रिया ही, न इन्द्रियाँ कारण हैं, और न चेतन अचेतन पदार्थों का विनाश करना ही बन्‍ध का कारण है । किन्‍तु जो उपयोगरूपी जमीन रागादिकों के साथ एकता को प्राप्‍त होती है, सिर्फ वही अर्थात् जीवों का रागादिक सहित उपयोग ही बन्‍ध का कारण है' । यदि वही जीव निर्मम रागादि रहित उपायोगवाला हो जाय, तो कर्मों से छूट जाता है । कहा भी है कि –

'मैं अकिंचन हूँ, मेरा कुछ भी नहीं, बस ऐसे होकर बैठे रहो और तीन लोक के स्‍वामी हो जाओ । यह तुम्‍हें बड़े योगियों के द्वारा जाने जा सकने लायक परमात्‍मा का रहस्‍य बतला दिया है' ।

और भी कहा है- 'रागी जीव कर्मों को बाँधता है । रागादि से रहित हुआ जीव मुक्‍त हो जाता है । बस यही संक्षेप में बंध मोक्ष विषयक जिनेन्‍द्र का उपदेश है' । जबकि ऐसा है, तब हर एक प्रयत्‍न से व्रतादिकों में चित्‍त लगाकर अथवा मन, वचन, काय की सावधानता से निर्ममता का ही ख्‍याल रखना चाहिये ।

'शरीरादिक, मुझसे भिन्‍न है, मैं भी परमार्थ से इनसे भिन्‍न हूँ, न मैं इनका कुछ हूँ, न मेरे ही ये कुछ हैं ।' इत्‍यादिक श्रुतज्ञान की भावना से मुमुक्षु को भावना करनी चाहिये । आत्‍मानुशासन में गुणभद्रस्‍वामी ने कहा है । -

'जब तक मुक्ति नहीं हुई तब तक पर-द्रव्‍यों से हटने की भावना करे । जब उसका अभाव हो जायगा, तब प्रवृत्ति ही न रहेगी । बस वही अविनाशी पद जानो' ॥२६॥

यहाँ पर शिष्‍य कहता है कि इसमें निर्ममता कैसे होवे ? इसमें निर्ममता के चिंतवन करने के उपायों का सवाल किया गया है । अब आचार्य उसकी प्रक्रिया को 'एकोअहं निर्मम:' से प्रारंभ कर 'मम विज्ञस्‍य का स्‍पृहा' तक के श्‍लोकों द्वारा बतलाते हैं ।