+ भेद-ज्ञान की प्रेरणा -
जीवाजीव म एक्कु करि लक्खण-भेएँ भेउ
जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ॥30॥
जीवाजीवौ मा एकौ कुरु लक्षणभेदेन भेदः ।
यत्परं तत्परं भणामि मन्यस्व आत्मन आत्मना अभेदः ॥३०॥
अन्वयार्थ : [जीवाजीवौ एकौ मा कार्षीः] जीव और अजीव को एक मतकर [लक्षणभेदेन भेदः] लक्षण के भेद से भेद कर [यत्परं तत्परं मन्यस्व] जो पर हैं उनको पर जान [च आत्मनः आत्मना अभेदः] और आत्मा का अपने से अभेद जान [भणामि] ऐसा मैं कहता हूँ । ।
Meaning : Do not regard Jiva (soul or intelligence) and Ajiva (non-soul or non-intelligence) as one: both of them are, by their own Lakshanas (distinguishing attributes), distinct; know that which is different from Atman (soul) as different from it and know Atman alone to be the Atman.

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ जीवाजीवयोरेकत्वं मा कार्षीर्लक्षणभेदेन भेदोऽस्तीति निरूपयति -

हे प्रभाकरभट्ट जीवाजीवावेकौ मा कार्षीः । कस्मात् । लक्षणभेदेन भेदोऽस्ति तद्यथा - रसादिरहितं शुद्धचैतन्यं जीवलक्षणम् । तथा चोक्तं प्राभृते -
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तंचेदणागुणमसद्दं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥

इत्थंभूतशुद्धात्मनोभिन्नमजीवलक्षणम् । तच्च द्विविधम् । जीवसंबन्धमजीवसंबन्धं च । देहरागादिरूपं जीवसंबन्धं, पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपमजीवसंबन्धमजीवलक्षणम् । अत एव भिन्नं जीवादजीवलक्षणम् । ततःकारणात् यत्परं रागादिकं तत्परं जानीहि । कथंभूतम् । भेद्यमभेद्यमित्यर्थः । अत्र योऽसौशुद्धलक्षणसंयुक्तः शुद्धात्मा स एवोपादेय इति भावार्थः ॥३०॥


जीव अजीव के लक्षणों में से जीव का लक्षण शुद्ध चैतन्य है, वह स्पर्श, रस,गंध, रूप शब्दादिक से रहित है । ऐसा ही श्री समयसारमें कहा है -

'अरसं..' इत्यादि । इसका सारांश यह है, कि जो आत्म-द्रव्य है, वह मिष्ट आदि पाँच प्रकार के रस रहित है, श्वेत आदिक पाँच तरह के वर्ण रहित है, सुगन्ध, दुर्गंध इन दो तरह के गंध उसमें नहीं हैं, प्रगट (दृष्टिगोचर) नहीं है, चैतन्यगुण सहित है, शब्द से रहित है, पुल्लिंग आदि करके ग्रहण नहीं होता, अर्थात् लिंग रहित है, और उसका आकार नहीं दिखता, अर्थात् निराकार वस्तु है । आकार छह प्रकारकेहैं - समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सातिक, कुब्जक, वामन, हुंडक । इन छह प्रकार के आकारों से रहित है, ऐसा जो चिद्रूप निज वस्तु है, उसे तू पहचान । आत्मा से भिन्न जो अजीव-पदार्थ है, उसके लक्षण दो तरह से हैं, एक जीव सम्बन्धी, दूसरा अजीव संबंधी । जो द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म, नोकर्मरूप है, वह तो जीव-संबंधी है, और पुद्गलादि पाँच द्रव्यरूप अजीव जीव-संबंधी नहीं हैं, अजीव-संबंधी ही हैं, इसलिये अजीव हैं, जीव से भिन्न हैं । इस कारण जीव से भिन्न अजीवरूप जो पदार्थ हैं, उनको अपने मत समझो । यद्यपि रागादिक विभाव परिणाम जीव में ही उपजते हैं, इससे जीव के कहे जाते हैं, परंतु वे कर्म-जनित हैं, पर-पदार्थ (कर्म) के संबंध से हैं, इसलिये 'पर' ही समझो । यहाँ पर जीव-अजीव दो पदार्थ कहे गये हैं, उनमें से शुद्ध-चेतना लक्षण का धारण करनेवाला शुद्धात्मा ही ध्यान करने योग्य है, यह सारांश हुआ ॥३०॥