श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ तस्य शुद्धात्मनो ज्ञानमयादिलक्षणं विशेषेण कथयति - परमात्मविपरीतमानसविकल्पजालरहितत्वादमनस्कः, अतीन्द्रियशुद्धात्मविपरीतेनेन्द्रिय-ग्रामेण रहितत्वादतीन्द्रियः, लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञानेन निर्वृत्तत्वात् ज्ञानमयः, अमूर्तात्म- विपरीतलक्षणया स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या वर्जितत्वान्मूर्तिविरहितः, अन्यद्रव्यासाधारणया-शुद्धचेतनया निष्पन्नत्वाच्चिन्मात्रः । कोऽसौ । आत्मा । पुनश्च किंविशिष्टः । वीतराग-स्वसंवेदनज्ञानेन ग्राह्योऽपीन्द्रियाणामविषयश्च लक्षणमिदं निरुक्तं निश्चितमिति । अत्रोक्त-लक्षणपरमात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥३१॥ आगे शुद्धात्मा के ज्ञानादिक लक्षणों से विशेषपने से कहते हैं - यह शुद्ध आत्मा परमात्मा से विपरीत विकल्प-जालमयी मन से रहित है,शुद्धात्मा से भिन्न इन्द्रिय-समूह से रहित है, लोक और अलोक के प्रकाशनेवाले केवलज्ञान-स्वरूप है, अमूर्तीक आत्मा से विपरीत स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्ति-रहित है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाई जावे, ऐसी शुद्ध-चेतना स्वरूप ही है, और इन्द्रियों के गोचर नहीं है, वीतराग स्व-संवेदन से ही ग्रहण किया जाता है । ये लक्षण जिसके प्रगट कहे गये हैं उसको ही तू निःसंदेह आत्मा जान । इस जगह जिसके ये लक्षण कहे गये हैं, वही आत्मा है, वही उपादेय है, आराधने योग्य है, यह तात्पर्य निकला ॥३१॥ |