श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथोत्पादव्ययपर्यायार्थिकनयेन संयुक्तोऽपि यः द्रव्यार्थिकनयेन उत्पादव्ययरहितः स एवपरमात्मा निर्विकल्पसमाधिबलेन जिनवरैर्देहेऽपि द्रष्ट इति निरूपयति - भावाभावाभ्यां संयुक्त : पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्ययाभ्यां परिणतः, द्रव्यार्थिकनयेनभावाभावयोः रहितः य एव वीतरागनिर्विकल्पसदानन्दैकसमाधिना तद्भवमोक्षसाधकाराधानासमर्थेन जिनवरैर्देहेऽपि द्रष्टः तमेव परमात्मानं मन्यस्व जानीहि वीतरागपरम-समाधिबलेनानुभवेत्यर्थः । अत्र य एव परमात्मा कृष्णनीलकापोतलेश्यास्वरूपादिसमस्त-विभावरहितेन शुद्धात्मोपलब्धिध्यानेन जिनवरैर्देहेऽपि द्रष्टः स एव साक्षादुपादेय इतितात्पर्यार्थः ॥४३॥ आगे यद्यपि पर्यायार्थिकनय से उत्पाद-व्यय से सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद-व्यय रहित है, सदा ध्रुव (अविनाशी) ही है, वही परमात्मा निर्विकल्प समाधि के बल से तीर्थंकरदेवों ने देह में भी देख लिया है, ऐसा कहते हैं : - जो व्यवहारनय से यद्यपि उत्पाद और व्यय से सहित है तो भी द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद और विनाश से रहित है, तथा वीतराग निर्विकल्प आनंदरूप से समाधि द्वारा तद्भव-मोक्ष के साधक जिनवरदेव ने देह में भी देख लिया है, उसी को तू परमात्मा जान, अर्थात वीतराग परमसमाधि के बल से अनुभव कर । जो परमात्मा कृष्ण, नील, कापोत, लेश्यारूप विभाव परिणामों से रहित शुद्धात्म की प्राप्तिरूप ध्यानकर जिनवरदेव ने देह में देखा है, वही साक्षात् उपादेय है ॥४३॥ |