श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ येन देहे वसता पञ्चेन्द्रियग्रामो वसति गतेनोद्वसो भवति स एव परमात्माभवतीति कथयति - देहे वसता येन परं नियमेनेन्द्रियग्रामो वसति येनात्मना निश्चयेनातीन्द्रियस्वरूपेणापि-व्यवहारनयेन शुद्धात्मविपरीते देहे वसता स्पर्शनादीन्द्रियग्रामो वसति, स्वसंवित्त्यभावे स्वकीयविषये प्रवर्तत इत्यर्थः । उद्वसो भवति गतेन स एवेन्द्रियग्रामो यस्मिन् भवान्तरगतेसत्युद्वसो भवति स्वकीयविषयव्यापाररहितो भवति स्फुटं निश्चितं स एवंलक्षणश्चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा भवतीति । अत्र य एवातीन्द्रियसुखास्वादसमाधिरतानां मुक्ति-कारणं भवति स एव सर्वप्रकारोपादेयातीन्द्रियसुखसाधकत्वादुपादेय इति भावार्थः ॥४४॥ आगे देह में जिसके रहने से पाँच इन्द्रियरूप गाँव बसता है, और जिसके निकलने से पंचेन्द्रियरूप गाँव उजड़ हो जाता है, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं - शुद्धात्मा से जुदी ऐसी देह में बसते आत्मज्ञान के अभाव से ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में (रूपादि में) प्रवर्तती हैं, और जिसके चले जाने पर अपने-अपने विषय-व्यापार से रुक जाती हैं, ऐसा चिदानन्द निज-आत्मा, वही परमात्मा है । अतीन्द्रिय-सुख के आस्वादी परम-समाधि में लीन हुए मुनियों को ऐसे परमात्मा का ध्यान ही मुक्ति का कारण है, वही अतीन्द्रिय-सुख का साधक होने से सब तरह उपादेय है ॥४४॥ |