श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ यः कर्मनिबद्धोऽपि कर्मरूपो न भवति कर्मापि तद्रूपं न संभवति तं परमात्मानंभावयेति कथयति - [कम्मणिबद्धु वि होइ णवि जो फुडु कम्मु कया वि] कर्मनिबद्धोऽपि भवति नैव यःस्फु टं निश्चितम् । किं न भवति । कर्म कदाचिदपि । तथाहि - यः कर्ता शुद्धात्मोप-लम्भाभावेनोपार्जितेन ज्ञानावरणादिशुभाशुभकर्मणा व्यवहारेण बद्धोऽपि शुद्धनिश्चयेन कर्मरूपो न भवति । केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वरूपं त्यक्त्वा कर्मरूपेण न परिणमतीत्यर्थः । पुनश्च किंविशिष्टः । [कम्मु वि जो ण कया वि फुडु] कर्मापि यो न कदापि स्फुटं निश्चितम् । तद्यथा - ज्ञानावरणादिद्रव्यभावरूपं कर्मापि कर्तृभूतं यः परमात्मा न भवति स्वकीयकर्मपुद्गलस्वरूपं विहाय परमात्मरूपेण न परिणमतीत्यर्थः । सो परमप्पउ भावि तमेवंलक्षणं परमात्मानं भावय ।देहरागादिपरिणतिरूपं बहिरात्मानं मुक्त्वा शुद्धात्मपरिणतिभावनारूपेऽन्तरात्मनि स्थित्वा सर्वप्रकारोपादेयभूतं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं परमात्मानं भावयेति भावार्थः ॥४९॥ एवंत्रिविधात्मप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये यथा निर्मलो ज्ञानमयो व्यक्ति रूपः शुद्धात्मा सिद्धौ तिष्ठति, तथाभूतः शुद्धनिश्चयेन शक्ति रूपेण देहेऽपि तिष्ठतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्विंशतिसूत्राणि गतानि । इसके बाद जो आत्मा कर्मों से अनादिकाल का बँधा हुआ है, तो भी कर्मरूप नहीं होता,और कर्म भी आत्म-स्वरूप नहीं होते आत्मा चैतन्य है, कर्म जड़ हैं, ऐसा जानकर उस परमात्मा का तू ध्यान कर, ऐसा कहते हैं - जो आत्मा अपने शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति के अभाव से उत्पन्न किये ज्ञानावरणादि शुभ-अशुभ कर्मों से व्यवहारनय से बँधा हुआ है, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से कर्मरूप नहीं है, अर्थात् केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप अपने स्वरूप को छोड़कर कर्मरूप नहीं परिणमता, और ये ज्ञानावरणादि द्रव्य-भावरूप कर्म भी आत्म-स्वरूप नहीं परिणमते, अर्थात् अपने जड़-रूप पुद्गलपने को छोड़कर चैतन्यरूप नहीं होते, यह निश्चय है, कि जीव तो अजीव नहीं होता, और अजीव है, वह जीव नहीं होता । ऐसी अनादिकाल की मर्यादा है । इसलिये कर्मों से भिन्न ज्ञान-दर्शनमयी सब तरह उपादेयरूप (आराधने योग्य) परमात्मा को तुम देह रागादि परिणतिरूप बहिरात्मपने को छोड़कर शुद्धात्म परिणति की भावनारूप अन्तरात्मा में स्थिर होकर चिन्तवन करो, उसी का अनुभव करो, ऐसा तात्पर्य हुआ ॥४९॥ ऐसे तीन प्रकार आत्मा के कहनेवाले पहले महाधिकार के पाँचवे स्थल में जैसा निर्मलज्ञानमयी प्रगटरूप शुद्धात्मा सिद्ध-लोक में विराजमान है, वैसा ही शुद्ध-निश्चयनय से शक्तिरूप से देह में तिष्ठ रहा है, ऐसे कथन की मुख्यता से चौबीस दोहा-सूत्र कहे गये । |