श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अत उर्ध्वं स्वदेहप्रमाणव्याख्यानमुख्यत्वेन षट्सूत्राणि कथयन्ति । तद्यथा - केऽपि भणन्ति जीवं सर्वगतं, जीवं केऽपि जडं भणन्ति, केऽपि भणन्ति जीवं देहसमं,शून्यमपि केऽपि वदन्ति । तथाहि - केचन सांख्यनैयायिकमीमांसकाः सर्वगतं जीवं वदन्ति ।सांख्याः पुनर्जडमपि कथयन्ति । जैनाः पुनर्देहप्रमाणं वदन्ति । बौद्धाश्च शून्यं वदन्तीति । एवंप्रश्नचतुष्टयं कृतमिति भावार्थः ॥५०॥ इससे आगे छह दोहा-सूत्रों में आत्मा व्यवहारनय से अपनी देह के प्रमाण है, यह कह सकते हैं - नैयायिक, वेदान्ती और मीमांसक-दर्शनवाले जीव को सर्वव्यापक कहते हैं, सांख्य-दर्शनवाले जीव को जड़ कहते हैं, बौद्ध-दर्शनवाले जीव को शून्य भी कहते हैं, जिनधर्मी जीव को व्यवहारनय से देहप्रमाण कहते हैं, और निश्चयनय से लोकप्रमाण कहते हैं । वह आत्मा कैसा है ? और कैसा नहीं है ? ऐसे चार प्रश्न शिष्य ने किये, ऐसा तात्पर्य है ॥५०॥ |