श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ वक्ष्यमाणनयविभागेन प्रश्नचतुष्टयस्याप्यभ्युपगमं स्वीकारं करोति - आत्मा हे योगिन् सर्वगतोऽपि भवति, आत्मानं जडमपि विजानीहि, आत्मानं देहप्रमाणंमन्यस्व, आत्मानं शून्यमपि जानीहि । तद्यथा । हे प्रभाकरभट्ट वक्ष्यमाणविवक्षितनयविभागेनपरमात्मा सर्वगतो भवति, जडोऽपि भवति, देहप्रमाणोऽपि भवति, शून्योऽपि भवति नापि दोष इति भावार्थः ॥५१॥ आगे नय-विभाग से आत्मा सब रूप है, एकान्तवाद से अन्यवादी मानते हैं, सो ठीक नहीं है, इस प्रकार चारों प्रश्नों को स्वीकार करके समाधान करते हैं - हे प्रभाकरभट्ट, आगे कहे जानेवालेनय के भेद से आत्मा सर्वगत भी है, आत्मा जड़ भी है ऐसा जानो, आत्मा को देह के बराबर भी मानो, आत्मा को शून्य भी जानो । नय-विभाग से मानने में कोई दोष नहीं है, ऐसा तात्पर्य है ॥५१॥ |