
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ ज्ञानमयपरमात्मनः सकाशादन्यत्परद्रव्यं मुक्त्वा शुद्धात्मानं भावयेति निरूपयति - [अप्पा मिल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ] आत्मानं मुक्त्वा । किंविशिष्टम् ज्ञानमयंकेवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणराशिं निश्चयात् अन्यो भिन्नोऽभ्यन्तरे मिथ्यात्वरागादिबहिर्विषये देहादिपरभावः [सो छंडेविणु जीव तुहुं भावहि अप्पसहाउ] तं पूर्वोक्तं शुद्धात्मनो विलक्षणं परभावं छंडयित्वा त्यक्त्वा हे जीव त्वं भावय । कम् । स्वशुद्धात्मस्वभावम् । किंविशिष्टम् ।केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्ति रूपकार्यसमयसारसाधक मभेदरत्नत्रयात्मककारणसमयसारपरिणतमिति ।अत्र तमेवोपादेयं जानीहीत्यभिप्रायः ॥७४॥ आगे ज्ञानमयी परमात्मा से भिन्न पर-द्रव्य को छोड़कर तू शुद्धात्मा का ध्यान कर, ऐसा कहते हैं - केवलज्ञानादि अनंतगुणों की राशि आत्मा से जुदे जो मिथ्यात्व रागादि अंदर के भाव तथा देहादि बाहिर के पर-भाव ऐसे जो शुद्धात्मा से विलक्षण पर-भाव हैं, उनको छोड़कर केवलज्ञानादि अनंत-चतुष्टयरूप कार्य-समयसार का साधक जो अभेद-रत्नत्रयरूप कारण-समयसार है, उस रूप परिणत हुए अपने शुद्धात्म स्वभाव का चिंतवन कर और उसी को उपादेय समझ ॥७४॥ |