
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ निश्चयेनाष्टकर्मसर्वदोषरहितं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसहितमात्मानं जानीहीतिकथयति - [अट्ठहं कम्महं बाहिरउ सयलहं दोसहं चत्तु] अष्टकर्मभ्यो बाह्यं शुद्धनिश्चयेन ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मभ्यो भिन्नं मिथ्यात्वरागादिभावकर्मरूपसर्वदोषैस्त्यक्त म् । पुनश्च किंविशिष्टम् । [दंसणणाणचरित्तमउ] दर्शनज्ञानचारित्रमयं शुद्धोपयोगाविनाभूतैः स्वशुद्धात्मसम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रैर्निर्वृत्तं [अप्पा भावि णिरुत्तु] तमित्थंभूतमात्मानं भावय द्रष्टश्रुतानुभूतभोगा-कांक्षारूपनिदानबन्धादिसमस्तविभावपरिणामान् त्यक्त्वा भावयेत्यर्थः । [णिरुतु निश्चितम्] । अत्रनिर्वाणसुखादुपादेयभूतादभिन्नः समस्तभावकर्मद्रव्यकर्मभ्यो भिन्नो योऽसौ शुद्धात्मा स एवाभेदरत्नत्रयपरिणतानां भव्यानामुपादेय इति भावार्थः ।।७५।। एवं त्रिविधात्म-प्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये पृथक् पृथक् स्वतन्त्रं भेदभावनास्थलसूत्रनवकं गतम् ॥७५॥ आगे निश्चयनय से आठ कर्म और सब दोषों से रहित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी आत्मा को तू जान, ऐसा कहते हैं - शुद्ध-निश्चयनय से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित मिथ्यात्व रागादि सब विकारों से रहित शुद्धोपयोग के साथ रहनेवाले अपने सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप आत्मा का निश्चय से चिंतवन कर । देखे, सुने, अनुभवे भोगों की अभिलाषारूप सब विभाव-परिणामों को छोड़कर निज-स्वरूप का ध्यान कर । यहाँ उपादेयरूप अतीन्द्रिय-सुख से तन्मयी और सब भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म, नो-कर्म से जुदा जो शुद्धात्मा है, वही अभेद रत्नत्रय को धारण करनेवाले निकट-भव्यों को उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ ॥७५॥ ऐसे तीन प्रकार आत्मा के कहनेवाले प्रथम महाधिकार में जुदे-जुदे स्वतंत्र भेद भावना के स्थल में नौ दोहा-सूत्र कहे । |