+ मिथ्यात्वी का लक्षण -
जिउ मिच्छत्तेँ परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेई ।
कम्म-विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ ॥79॥
जीवः मिथ्यात्वेन परिणतः विपरीतं तत्त्वं मनुते ।
कर्मविनिर्मितान् भावान् तान् आत्मानं भणति ॥७९॥
अन्वयार्थ : [मिथ्यात्वेन परिणतः जीवः] मिथ्यात्व-रूप परिणत हुआ जीव [तत्त्वं विपरीतं मनुते] तत्त्व को विपरीत मानता हुआ, [कर्मविनिर्मितान् भावान्] कर्मों से रचे गये भाव [तान् आत्मानं भणति] उनको अपने कहता है ।
Meaning : The Jiva who gives himself up to Mithiyatva (falsehood) knows the Tattvas in the wrong way and believes the Bhavas (thoughts, forms or conditions) created by Karmas as his own.

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ मिथ्यापरिणत्या जीवो विपरीतं तत्त्वं जानातीति निरूपयति -

[जिउ मिच्छत्तें परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेइ] जीवो मिथ्यात्वेन परिणतः सन् विपरीतंतत्त्वं जानाति, शुद्धात्मानुभूतिरुचिविलक्षणेन मिथ्यात्वेन परिणतः सन् जीवः परमात्मादितत्त्वं च यथावद् वस्तुस्वरूपमपि विपरीतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतं जानाति । ततश्च किं करोति । [कम्मविणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ] कर्मविनिर्मितान् भावान् तानात्मानं भणति, विशिष्टभेदज्ञानाभावाद्गौरस्थूलकृशादिकर्मजनितदेहधर्मानं जानातीत्यर्थः । अत्र तेभ्यःकर्मजनितभावेभ्यो भिन्नो रागादिनिवृत्तिकाले स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥७९॥


आगे मिथ्यात्व परिणति से यह जीव तत्त्व को यथार्थ नहीं जानता, विपरीत जानता है, ऐसा कहते हैं -

यह जीव अतत्त्व-श्रद्धानरूप परिणत हुआ, आत्मा को आदि लेकर तत्त्वों के स्वरूप को विपरीत श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता । वस्तु का स्वरूप तो जैसा है वैसा ही है, तो भी वह मिथ्यात्वी जीव वस्तु के स्वरूप को विपरीत जानता है, अपना जो शुद्ध-ज्ञानादि सहित स्वरूप है, उसको मिथ्यात्व रागादिरूप जानता है । उससे क्या करता है ? कर्मों से रचे गये शरीरादि परभाव हैं उनको अपने कहता है, अर्थात् भेदविज्ञान के अभाव से गोरा, श्याम, स्थूल, कृश, इत्यादि कर्म-जनित देह के स्वरूप को अपना जानता है, इसी से संसार में भ्रमण करता है ।

यहाँ पर कर्मों से उपार्जन किये भावों से भिन्न जो शुद्ध-आत्मा है, उससे जिस समय रागादि दूर होते हैं, उस समय उपादेय है, क्योंकि तभी शुद्ध-आत्मा का ज्ञान होता है ॥७९॥