
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
आगे फिर कहते हैं - [जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्तु वि मित्तु वि दव्वु] जननी माता जननः पितापिकान्ता भार्या गृहं पुत्रोऽपि मित्रमपि द्रव्यं सुवर्णादि यत्तत्सर्वं [मायाजालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सव्वु] मायाजालमप्यसत्यमपि कृत्रिममपि आत्मीयं स्वकीयं मन्यते । कोऽसौ । मूढोमूढात्मा । कतिसंख्योपेतमपि । सर्वमपीति । अयमत्र भावार्थः । जनन्यादिकं परस्वरूपमपिशुद्धात्मनो भिन्नमपि हेयस्याशेषनारकादिदुःखस्य कारणत्वाद्धेयमपि साक्षादुपादेयभूताना-कुलत्वलक्षण-पारमार्थिकसौख्यादभिन्ने वीतरागपरमानन्दैकस्वभावे शुद्धात्मतत्त्वे योजयति । स कः । मनोवचनकायव्यापारपरिणतः स्वशुद्धात्मद्रव्यभावनाशून्यो मूढात्मेति ॥८३॥ आगे फिर भी कहते हैं - ये माता पिता आदि सब कुटुम्बीजन पर-स्वरूप भी हैं, सब स्वार्थ के हैं, शुद्धात्मा से भिन्न भी हैं, शरीर-संबंधी हैं, हेयरूप संसारीक नारकादि दुःखों के कारण होने से त्याज्य भी हैं, उनको जो जीव साक्षात् उपादेयरूप अनाकुलता-स्वरूप परमार्थिक-सुख से अभिन्न वीतराग परमानंदरूप एक-स्वभाववाले शुद्धात्म-द्रव्य में लगाता है, अर्थात अपने मानता है, वह मन, वचन कायरूप परिणत हुआ शुद्ध अपने आत्म-द्रव्य की भावना से शून्य (रहित) मूढात्मा है, ऐसा जानो, अर्थात् अतीन्द्रिय-सुखरूप आत्मा में पर-वस्तु का क्या प्रयोजन है । जो परवस्तु को अपना मानता है, वही मूर्ख है ॥८३॥ |