
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ - आत्मा गुरुर्नैव भवति शिष्योऽपि न भवति नैव स्वामी नैव भृत्यः शूरो न भवतिकातरो हीनसत्त्वो नैव भवति नैवोत्तमः उत्तमकुलप्रसूतः नैव नीचो नीचकुलप्रसूत इति ।तद्यथा । गुरुशिष्यादिसंबन्धान् यद्यपि व्यवहारेण जीवस्वरूपांस्तथापि शुद्धनिश्चयेनपरमात्मद्रव्याद्भिन्नान् हेयभूतान् वीतरागपरमानन्दैकस्वशुद्धात्मोपलब्धेश्च्युतो बहिरात्मा स्वात्मसंबद्धान् करोति तानेव वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थो अन्तरात्मा परस्वरूपान् जानातीति भावार्थः ॥८९॥ आगे यह गुरु शिष्यादिक भी नहीं है - ये सब गुरु, शिष्य, स्वामी, सेवकादि संबंध यद्यपि व्यवहार-नय से जीव के स्वरूप हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से शुद्ध आत्मा से जुदे हैं, आत्मा के नहीं हैं, त्यागने योग्य हैं, इन भेदों को वीतराग परमानंद निज शुद्धात्मा की प्राप्ति से रहित बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव अपने समझता है, और इन्हीं भेदों को वीतराग निर्विकल्प समाधि में रहता हुआ अंतरात्मा सम्यग्दृष्टिजीव पर रूप (दूसरे) जानता है ॥८९॥ |