
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ - [अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ अप्पा णारउ कहिं वि णवि] आत्मामनुष्यो न भवति देवो नैव भवति आत्मा तिर्यग्योनिर्न भवति आत्मा नारकः क्वापि काले न भवति । तर्हि किंविशिष्टो भवति । [णाणिउ जाणइ जोइ] ज्ञानी ज्ञानरूपो भवति । तमात्मानंकोऽसो जानाति । योगी कोऽर्थः । त्रिगुप्तिनिर्विकल्पसमाधिस्थ इति । तथाहि । विशुद्धज्ञानदर्शन-स्वभावपरमात्मतत्त्वभावनाप्रतिपक्षभूतैः रागद्वेषादिविभावपरिणामजालैर्यान्युपार्जितानि कर्माणि तदुदयजनितान् मनुष्यादिविभावपर्यायान् भेदाभेदरत्नत्रयभावनाच्युतो बहिरात्मा स्वात्मतत्त्वे योजयति । तद्विपरीतोऽन्तरात्मशब्दवाच्यो ज्ञानी पृथक् जानातीत्यभिप्रायः ॥९०॥ आगे आत्मा का स्वरूप कहते हैं - निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव जो परमात्म-तत्त्व, उसकी भावना से उलटे राग-द्वेषादि विभाव-परिणामों से उपार्जन किये जो शुभाशुभ कर्म हैं, उनके उदय से उत्पन्न हुई मनुष्यादि विभाव-पर्यायों को भेदाभेद स्वरूप रत्नत्रय की भावना से रहित हुआ मिथ्यादृष्टि जीव, अपने जानता है और इस अज्ञान से रहित सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव उन मनुष्यादि पर्यायों को अपने से जुदा जानता है ॥९०॥ |