
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ - अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु तरुणउ बूढउ बालु णवि आत्मापण्डितो न भवति मूर्खो नैव ईश्वरः समर्थो नैव निःस्वो दरिद्रः तरुणो वृद्धो बालोऽपि नैव। पण्डितादिस्वरूपं यद्यात्मस्वभावो न भवति तर्हि किं भवति । अण्णु वि कम्मविसेसु अन्य एवकर्मजनितोऽयं विभावपर्यायविशेष इति । तद्यथा । पण्डितादिसंबन्धान् यद्यपि व्यवहारनयेनजीवस्वभावान् तथापि शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धात्मद्रव्याद्भिन्नान् सर्वप्रकारेण हेयभूतान् वीतरागस्वसंवेदनज्ञानभावनारहितोऽपि बहिरात्मा स्वस्मिन्नियोजयति तानेव पण्डितादि-विभावपर्यायांस्तद्विपरीतो योऽसौ चान्तरात्मा परस्मिन् कर्माणि नियोजयतीति तात्पर्यार्थः ॥९१॥ आगे फिर आत्मा का स्वरूप कहते हैं - यद्यपि शरीर के सम्बन्ध से पंडित वगैरह भेद व्यवहारनय से जीव के कहे जाते हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से शुद्धात्म-द्रव्य से भिन्न हैं, और सर्वथा त्यागने योग्य हैं । इन भेदों को वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान की भावना से रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और इन्हीं को पंडितादि विभाव-पर्यायों को अज्ञान से रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपने से जुदे कर्म-जनित जानता है ॥९१॥ |