
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथास्मिन्नेवार्थे पुनरपि व्यक्त्यर्थं द्रष्टान्तमाह - [तारायणु जलि बिंबियउ] तारागणो जले बिम्बितः प्रतिफ लितः । कथंभूते जले । [णिम्मलि दीसइ जेम] निर्मले द्रश्यते यथा ।द्रार्ष्टान्तमाह । [अप्पए णिम्मलि बिंबियउ लोयालोउ वि तेम] आत्मनि निर्मले मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालरहिते बिम्बितं लोकालोकमपि तथा द्रश्यतइति । अत्र विशेषव्याख्यानं यदेव पूर्वद्रष्टान्तसूत्रे व्याख्यानमत्रापि तदेव ज्ञातव्यम् । कस्मात् ।अयमपि तस्य द्रष्टान्तस्य द्रढीकरणार्थमिति सूत्रतात्पर्यार्थः ॥१०२॥ आगे इसी अर्थ को फिर भी खुलासा करने के लिये दृष्टान्त देकर कहते हैं - इसका विशेष व्याख्यान जो पहले कहा था, वही यहाँ पर जानना अर्थात् जो सबका ज्ञाता द्रष्टा आत्मा है, वही उपादेय है । यह सूत्र भी पहले कथन को दृढ़ करनेवाला है ॥१०२॥ |