
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथात्मा परश्च येनात्मना ज्ञानेन ज्ञायते तमात्मानं स्वसंवेदनज्ञानबलेन जानीहीतिकथयति - [अप्पु वि परु वि वियाणियइ जें अप्पें मुणिएण] आत्मापि परोऽपि विज्ञायते येनआत्मना विज्ञातेन [सो णिय अप्पा जाणि तुहुं] तं निजात्मानं जानीहि त्वम् । [जोइय णाणबलेण] हे योगिन्, केन कृत्वा जानीहि । ज्ञानबलेनेति । अयमत्रार्थः । वीतरागसदानन्दैकस्वभावेनयेनात्मना ज्ञातेन स्वात्मा परोऽपि ज्ञायते तमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानभावना-समुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादेन जानीहि तन्मयो भूत्वा सम्यगनुभवेति भावार्थः ॥१०३॥ आगे जिस आत्मा के जानने से निज और पर सब पदार्थ जाने जाते हैं, उसी आत्मा को तू स्व-संवेदन ज्ञान के बल से जान, ऐसा कहते हैं - यहाँ पर यह है, कि रागादि विकल्प-जाल से रहित सदा आनंद स्वभाव जो निज-आत्मा, उसके जानने से निज और पर सब जाने जाते हैं, इसलिये हे योगी! हे ध्यानी! तू उस आत्मा को वीतराग निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञान की भावना से उत्पन्न परमानंद सुखरस के आस्वाद से जान, अर्थात् तन्मयी होकर अनुभव कर । स्व-संवेदन ज्ञान ही सार है । ऐसा उपदेश श्री योगीन्द्रदेव ने प्रभाकरभट्ट को दिया ॥१०३॥ |