
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अतः कारणात् ज्ञानं पृच्छति - [णाणु पयासहि] परमु महु ज्ञानं प्रकाशय परमं मम । [किं अण्णे बहुएण] किमन्येन ज्ञानरहितेन बहुना । [जेण णियप्पा जाणियइ] येन ज्ञानेन निजात्मा ज्ञायते, सामिय एक्कखणेणहे स्वामिन् नियतकालेनैकक्षणेनेति । तथाहि । प्रभाकरभट्टः पृच्छति । किं पृच्छति । हे भगवन्येन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन क्षणमात्रेणैव शुद्धबुद्धैकस्वभावो निजात्मा ज्ञायते तदेव ज्ञानं कथय किमन्येन रागादिप्रवर्धकेन विकल्पजालेनेति । अत्र येनैव ज्ञानेन मिथ्यात्वरागादि-विकल्परहितेन निजशुद्धात्मसंवित्तिरूपेणान्तर्मुहूर्तेनैव परमात्मस्वरूपं ज्ञायते तदेवोपादेयमिति तात्पर्यार्थः ॥१०४॥ अब प्रभाकरभट्ट महान् विनय से ज्ञान का स्वरूप पूछता है - प्रभाकर भट्ट श्रीयोगीन्द्रदेव से पूछता है, कि हे स्वामी जिस वीतराग स्व-संवेदन से ज्ञान द्वारा क्षणमात्र में शुद्ध, बुद्ध स्वभाव अपनी आत्मा जानी जाती है, वह ज्ञान मुझको प्रकाशित करो, दूसरे विकल्प-जालों से कुछ फायदा नहीं है, क्योंकि ये रागादिक विभावों के बढ़ानेवाले हैं । सारांश यह है कि मिथ्यात्व रागादि विकल्पों से रहित तथा निज शुद्ध आत्मानुभव रूप जिस ज्ञान से अंतर्मुहूर्त में ही परमात्मा का स्वरूप जाना जाता है, वही ज्ञान उपादेय है । ऐसी प्रार्थना शिष्य ने श्रीगुरु से की ॥१०४॥ |