
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
जहिँ मइ तहिँ गइ जीव तहुँ मरणु वि जेण लहेहि । तेँ परबंभु मुएवि मइँ मा पर-दव्वि करेहि ॥११२॥ आगे फिर इसी बात को दृढ़ करते हैं - शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से टाँकी का-सा गढ़ा हुआ अघटित घाट, अमूर्तिक-पदार्थ, ज्ञायक-मात्र स्वभाव, वीतराग, सदा आनंदरूप, अद्वितीय अतीन्द्रिय सुखरूप, अमृत के रस द्वारा तृप्त ऐसे निज शुद्धात्म-तत्त्व को छोड़कर द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म में या देहादि परिग्रह में मन को मत लगा ॥११२॥ |