
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
तदन्तरं किं तत् परद्रव्यमिति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति - जमित्यादि । पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । [जं यत् णियदव्वहं] निजद्रव्यात् [भिण्णु] भिन्नं पृथग्भूतं [जडु] जडं [तं] तत् [परदव्वु वियाणि] परद्रव्यं जानीहि । तच्च किम् ।[पुग्गलु धम्माधम्मु णहु] पुद्गलधर्माधर्मनभोरूपं कालु वि कालमपि पंचमु जाणि पञ्चमं जानीहीति । अनन्तचतुष्टयस्वरूपान्निजद्रव्याद्बाह्यं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरूपं जीवसंबद्धं शेषं पुद्गलादिपञ्चभेदं यत्सर्वं तद्धेयमिति ॥११३॥ आगे परलोक (परमात्मा) में ही मन लगा, पर-द्रव्य से ममता छोड़ ऐसा कहा गया था, उसमें शिष्य ने प्रश्न किया कि पर-द्रव्य क्या हैं ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं - द्रव्य छह हैं, उनमें से पाँच जड़ और जीव को चैतन्य जानो । पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश ये सब जड़ हैं, इनको अपने से जुदा जानो और जीव भी अनंत हैं, उन सबको अपने से भिन्न जानो । अनंत-चतुष्टय स्वरूप अपना आत्मा है, उसी को निज (अपना ) जानो, और जीव के भाव-कर्मरूप रागादिक तथा द्रव्य-कर्म, ज्ञानावरणादि आठ कर्म, और शरीरादिक नोकर्म, और इनका संबंध अनादि से है, परंतु जीव से भिन्न है, इसलिये अपने मत मान । पुद्गलादि पाँच भेद जड़ पदार्थ सब हेय जान, अपना स्वरूप ही उपादेयहै, उसी को आराधन कर ॥११३॥ |