
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ - अप्पा इत्यादि । [अप्पादंसणि] निजशुद्धात्मदर्शने [जिणवरहं] छद्मस्थावस्थायां जिनवराणां [जं सुहु होइ अणंतु] यत्सुखं भवत्यनन्तं [तं सुहु] तत्पूर्वोक्त सुखं [लहइ] लभते । कोऽसौ । [विराउ जिउ] वीतरागभावनापरिणतो जीवः किं कुर्वन् सन् । [जाणंतउ] जानन्ननुभवन् सन् । कम् । सिउशिवशब्दवाच्यं निजशुद्धात्मस्वभावम् । कथंभूतम् । [संतु] शान्तं रागादिविभावरहितमिति । अयमत्रभावार्थः । दीक्षाकाले शिवशब्दवाच्यस्वशुद्धात्मानुभवने यत्सुखं भवति जिनवराणांवीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतो जीवस्तत्सुखं लभत इति ॥११८॥ आगे ऐसा कहते हैं कि वैरागी मुनि ही निज आत्मा को जानते हुए निर्विकल्प सुख को पाते हैं - निज शुद्धात्मा के दर्शन में जो अनंत अद्भुत सुख मुनि-अवस्था में जिनेश्वर-देवों के होता है, वह सुख वीतराग-भावना को परिणत हुआ मुनिराज निज शुद्धात्म-स्वभाव को तथा रागादि-रहित शांत-भाव को जानता हुआ पाता है । दीक्षा के समय तीर्थंकर-देव निज शुद्धआत्मा को अनुभवते हुए जो निर्विकल्प-सुख पाते हैं, वही सुख रागादि-रहित निर्विकल्प-समाधि में लीन विरक्त मुनि पाते हैं ॥११८॥ |