
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ यथा मलिने दर्पणे रूपं न द्रश्यते तथा रागादिमलिनचित्ते शुद्धात्मस्वरूपं न द्रश्यतइति निरूपयति - राएं इत्यादि । [राएं रंगिए हियवडए] रागेन रज्जिते हृदये [देउ ण दीसइ] देवो न द्रश्यते । किंविशिष्टः [संतु] शान्तो रागादिरहितः ।द्रष्टांतमाह । [दप्पणि मइलए] दर्पणे मलिने [बिंबु जिम] बिम्बं यथा एहउ एतत् जाणि जानीहि हे प्रभाकरभट्ट णिभंतु निर्भ्रान्तं यथा भवतीति ।अयमत्राभिप्रायः । यथा मेघपटलप्रच्छादितो विद्यमानोऽपि सहस्रकरो न द्रश्यते तथाकेवलज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकोऽपि कामक्रोधादिविकल्पमेघप्रच्छादितः सन् देहमध्ये शक्ति रूपेण विद्यमानोऽपि निजशुद्धात्मा दिनकरो न द्रश्यते इति ॥१२०॥ आगे जैसे मैले दर्पण में रूप नहीं दिखता, उसी तरह रागादि से मलिन चित्त में शुद्धआत्मस्वरूप नहीं दिखता, ऐसा कहते हैं - ऐसा श्री योगीन्द्राचार्य ने उपदेश दिया है कि जैसे सहस्र किरणों से शोभित सूर्य आकाश में प्रत्यक्ष दिखता है, लेकिन मेघ-समूह से ढँका हुआ नहीं दिखता, उसी तरह केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप किरणों द्बारा लोक-अलोक का प्रकाशनेवाला भी इस देह (घट) के बीच में शक्तिरूप से विद्यमान निज शुद्धात्म-स्वरूप (परमज्योति चिद्रूप) सूर्य काम-क्रोधादि राग-द्वेष भावों स्वरूप विकल्प-जालरूप मेघ से ढँका हुआ नहीं दिखता ॥१२०॥ |