
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ स्थलखंख्याबाह्यं प्रक्षेपकद्वयं कथ्यते - मणु इत्यादि । मणु मनो विकल्परूपं मिलियउ मिलितं तन्मयं जातम् । कस्यसंबन्धित्वेन । परमेसरहं परमेश्वरस्य परमेसरु वि मणस्स परमेश्वरोऽपि मनः संबन्धित्वेन लीनो जातः [बीहि वि समरसिहूवाहं] एवं द्वयोरपि समरसीभूतयोः [पुज्ज] पूजां [चडावउं] समारोपयामि । [कस्स] कस्य निश्चयनयेन न कस्यापीति । अयमत्र भावार्थः । यद्यपि व्यवहारनयेन गृहस्थावस्थायांविषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं धर्मवर्धनार्थं च पूजाभिषेकदानादिव्यवहारोऽस्ति तथापि वीतराग-निर्विकल्पसमाधिरतानां तत्काले बहिरङ्गव्यापाराभावात् स्वयमेव नास्तीति ॥१२३-अ॥ आगे स्थल की संख्या से सिवाय दो प्रक्षेपक दोहा कहते हैं - जब तक मन भगवान से नहीं मिला था, तब तक पूजा करता था, और जब मन प्रभु से मिल गया, तब पूजा का प्रयोजन नहीं है । यद्यपि व्यवहारनय से गृहस्थ-अवस्था में विषय कषायरूप खोटे ध्यान को हटाने के लिये और धर्म को बढ़ाने के लिये पूजा, अभिषेक, दान आदि का व्यवहार है, तो भी वीतराग-निर्विकल्प-समाधि में लीन हुए योगीश्वरों को उस समय में बाह्य व्यापार का अभाव होने से स्वयं ही द्रव्य-पूजा का प्रसंग नहीं आता, भाव-पूजा में ही तन्मय हैं ॥१२३-अ॥ |