+ मोक्ष, मोक्ष का फल, मोक्ष का कारण करने की प्रतिज्ञा -
जोइय मोक्खु वि मोक्ख-फ लु पुच्छिउ मोक्खहँ हेउ ।
सो जिण-भासिउ णिसुणि तुहुँ जेण वियाणहि भेउ ॥3॥
योगिन् मोक्षोऽपि मोक्षफ लं पृष्टं मोक्षस्य हेतुः ।
तत् जिनभाषितं निशृणु त्वं येन विजानासि भेदम् ॥१२५॥
अन्वयार्थ : [योगिन् मोक्षोऽपि] हे योगी, तूने मोक्ष और [मोक्षफलं मोक्षस्य हेतुः] मोक्ष का फल तथा मोक्ष का कारण [पुष्टं तत्] पूछा, उसको [जिनभाषितं] जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे को [त्वं निशृणु] तू निश्चय से सुन, [येन भेदम् विजानासि] जिससे कि भेद अच्छी तरह जान जावे ।
Meaning : Owing to the perfection of happiness and knowledge, Moksha is higher than Dharma (virtue), Artha (wealth, high position, etc.) and Kama. (enjoyment of sensual pleasures).

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ तदेव त्रयं क्रमेण भगवान् कथयति -

जोइय इत्यादि । [जोइय] हे योगिन् [मोक्खु वि] मोक्षोऽपि [मोक्ख-फलु] मोक्षफलं [पुच्छिउ] पृष्टं त्वया कर्तृभूतेन । पुनरपि कः पृष्टः । [मोक्खहं हेउ] मोक्षस्य हेतुः कारणम् । तत् [जिण-भासिउ] जिनभाषितं [णिसुणि] निश्चयेन शृणु समाकर्णय [तुहुं] त्वं [जेण] येन त्रयेण ज्ञानेन [वियाणहि भेउ] विजानासि भेदं त्रयाणां सम्बन्धिनमिति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । श्रीयोगीन्द्रदेवाःकथयन्ति हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मोपलम्भलक्षणं मोक्षं केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्ति रूपं मोक्षफलं भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं मोक्षमार्गं च क्रमेण प्रतिपादयाम्यहं त्वं शृण्विति ।


अब श्रीगुरु उन्हीं तीनों को क्रम से कहते हैं -

श्रीयोगींद्रदेव गुरु, शिष्य से कहते हैं कि हे प्रभाकरभट्ट; योगी शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष, केवलज्ञानादि अनंत-चतुष्टय का प्रगटपना स्वरूप मोक्ष-फल, और निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप मोक्ष का मार्ग, इन तीनों को क्रम से जिन-आज्ञा प्रमाण तुझको कहूँगा । उनको तू अच्छी तरह चित्त में धारण कर, जिससे सब भेद मालूम हो जावेगा ॥१२५॥