+ और भी निन्दा द्वारा स्तुति -
अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ ।
सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहँ णिलीणु हवेइ ॥45॥
अन्यः अपि दोषो भवति तस्य यः समभावं करोति ।
शत्रुमपि मुक्त्वा आत्मीयं परस्य निलीनः भवति ॥४५॥
अन्वयार्थ : [यः समभावं] जो समभाव को [करोति] करता है, [तस्य] उस (तपोधन) के [अन्यः अपि दोषः] दूसरा भी दोष [भवति] है । क्योंकि [परस्य निलीनः] पर के आधीन [भवति] होता है, और [आत्मीयं अपि] अपने आधीन भी [शत्रुम् मुंचति] शत्रु को छोड़ देता है ।
Meaning : He who adopts Sambhava (equanimity.) can be charged with two other faults-firstly, he leaves his old associate (that is Karma), and secondly, being absorbed in the Atman-Swarup (pure nature of soul) he becomes dependent upon it.

  श्रीब्रह्मदेव