+ ज्ञानी के किसी से राग द्वेष नहीं -
णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ ।
जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्प-सहाउ ॥47॥
ज्ञानी मुक्त्वा भावं शमं क्वापि याति न रागम् ।
येन लभिष्यति ज्ञानमयं तेन एव आत्मस्वभावम् ॥४७॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानी शमं भावं मुक्त्वा] ज्ञानी (मुनि) समभाव को छोड़कर [क्वापि रागम् न याति] किसी पदार्थ में राग नहीं करता [येन ज्ञानमयं] इसी कारण ज्ञानमयी निर्वाणपद [प्राप्स्यति] पावेगा, [तेनैव] और उसी (समभाव) से [आत्मस्वभावम्] आत्म-स्वभाव (सिद्ध-पद) को पावेगा ।
Meaning : The Sage does not give up Sambhava (equanimity) nor forms an attachment for any object other than his self ; that Jnana. Maee (embodiment of knowledge) Ideal which he wants to realise is none other than the Svabhava (real nature) of his Atman.

  श्रीब्रह्मदेव