
भणइ भणावह णवि थुणइ णिदह णाणि ण कोइ ।
सिद्धिहिँ कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ ॥48॥
भणति भाणयति नैव स्तौति निन्दति ज्ञानी न कमपि ।
सिद्धेः कारणं भावं समं जानन् परं तमेव ॥४८॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानी कमपि न] ज्ञानी न किसी से [भणति] पढ़ता [भाणयति] पढ़ाता [नैव स्तौति निंदति] न किसी की स्तुति करता, न किसी की निंदा करता, [सिद्धेः कारणं] मोक्ष का कारण [समं भावं] एक समभाव को [परं जानन्] निश्चय से जानो [तमेव] तुम भी ।
Meaning : The Sage does not talk of any other object, nor does he cause others to talk of any other object than the self ; neither he praises anything, nor does he speak ill of anything; he knows that the cause of Moksha is Sambhava fequanimity or evenness of mind towards all).
श्रीब्रह्मदेव