
जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ ।
सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ ॥55॥
यः नैव मन्यते जीवः समाने पुण्यमपि पापमपि द्वे ।
स चिरं दुःखं सहमानः जीव मोहेन हिण्डते लोके ॥५५॥
अन्वयार्थ : [यः जीवः] जो जीव [पुण्यमपि पापमपि द्वे] पुण्य और पाप दोनों को [समाने नैव मन्यते] समान नहीं मानता, [सः मोहेन] वह जीव मोह से मोहित हुआ [चिरं दुःखं सहमानः] बहुत काल तक दुःख सहता हुआ [लोके हिंडते] संसार में भटकता है ।
Meaning : He who does not regard Punya and Papa as equal,-such a one being under the influence of Moha will wander in the Samsara for a long time and remain unhappy.
श्रीब्रह्मदेव