
पावेँ णारउ तिरिउ जिउ पुएणेँ अमरु वियाणु ।
मिस्सेँ माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिव्वाणु ॥63॥
पापेन नारकः तिर्यग् जीवः पुण्येनामरो विजानीहि ।
मिश्रेण मनुष्यगतिं लभते द्वयोरपि क्षये निर्वाणम् ॥६३॥
अन्वयार्थ : [जीवः पापेन] जीव पाप से [नारकः तिर्यग्] नरकगति और तिर्यंचगति और [पुण्येन] पुण्य से [अमरः] देव और, [मिश्रेण] पुण्य और पाप दोनों के मेल से [मनुष्यगतिं] मनुष्यगति को [लभते] पाता है, और [द्वयोरपि क्षये] दोनों के ही नाश से [निर्वाणम्] मोक्ष को पाता है, ऐसा [विजानीहि] जानो ।
श्रीब्रह्मदेव