
वंदणु णिंदणु पडिकमणु पुण्णहँ कारणु जेण ।
करइ करावइ अणमणइ एक्कु वि णाणिण तेण ॥64॥
वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं पुण्यस्य कारणं येन ।
करोति कारयति अनुमन्यते एकमपि ज्ञानी न तेन ॥६४॥
अन्वयार्थ : [वंदनं] वंदना, [निंदनं] निंदा, और [प्रतिक्रमणं] प्रायश्चित्त, ये सब [येन पुण्यस्य कारणं] चूँकि पुण्य के कारण हैं, [तेन] इसीलिये [ज्ञानी] ज्ञानी जीव [एकमपि] एक भी [न करोति] न तो करता है, [कारयति] न कराता है, और न [अनुमन्यते] करते हुए को भला जानता है ।
Meaning : Vandna , Ninda and Pratikramana, all these three are the causes of virtue; the Jnani does not perform any of them, nor does he make another perform them, nor does he praise them.
श्रीब्रह्मदेव