
जहिँ भावइ तहिँ जाहि जिय जं भावइ करि तं जि ।
केम्वइ मोक्खुण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि ॥70॥
अत्र भाति तत्र याहि जीव यद् भाति कुरु तदेव ।
कथमपि मोक्षः नास्ति परं चित्तस्य शुद्धिर्न यदेव ॥७०॥
अन्वयार्थ : [जीव यत्र भाति] हे जीव, जहाँ भाए [तत्र याहि] वहां जा, और [यत् भाति] जो भाए [तदेव कुरु] वैसा कर, [परं यदेव] लेकिन जब तक [चित्तस्य शुद्धिः न] मन की शुद्धि नहीं है, तब तक [कथमपि मोक्षो नास्ति] किसी तरह मोक्ष नहीं हो सकता ।
Meaning : One may go wherever it pleases him to go, he may do whatever he chooses to do; but without the purity of thoughts, he cannot obtain Moksha.
श्रीब्रह्मदेव