
जो भत्तउ रयण-त्तयह तसु मुणि लक्खणु एउ ।
अच्छुउ कहिँ वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ ॥95॥
यः भक्त : रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं इदम् ।
तिष्ठतु कस्यामपि कुडयां स तस्य करोति न भेदम् ॥९५॥
अन्वयार्थ : [यः रत्नत्रयस्य] जो रत्नत्रय की [भक्तः] आराधना करनेवाला है, [तस्य] उसके [इदम् लक्षणं] यह लक्षण [मन्यस्व] जानना कि [कस्यामपि कुडयां] किसी शरीर में जीव [तिष्ठतु] रहे, [सः तस्य भेदम्] वह उसमें भेद [न करोति] नहीं करता ।
Meaning : A saint who is devoted to the Ratan Traya has this Lakshana in himself that he does not make any distinction between soul and soul; no matter in whatever bodies they dwell, he regards them all as equal.
श्रीब्रह्मदेव