
धम्मु ण संचिउ तउ ण किउ रुक्खेँ चम्ममएण ।
खज्जिवि जर-उद्देहियए णरइ पडिव्वउ तेण ॥133॥
धर्मो न संचितः तपो न कृतं वृक्षेण चर्ममयेन ।
खादयित्वा जरोद्रेहिकया नरके पतितव्यं तेन ॥१३३॥
अन्वयार्थ : [येन] जिसने [चर्ममयेन वृक्षेण] शरीररूपी वृक्ष को पाकर उससे [धर्मः न कृतः] धर्म नहीं किया, [तपो न कृतं] और तप भी नहीं किया, उसका शरीर [जरोद्रेहिकया खादयित्वा] बुढ़ापारूपी दीमक के कीड़े द्वारा खाया जायगा, फिर [तेन] उसे [नरके] नरक में [पतितव्यं] पड़ना पड़ेगा ।
Meaning : He who has not amassed Dharma and has not practised Tapas is like a tree ; he eats the Abhaksha , lives wantonly and descends into. hell.
श्रीब्रह्मदेव