तत्तवार्थ-सूत्र टीका | |||
---|---|---|---|
कर्ता | टीका का नाम | श्लोक-प्रमाण | काल |
समंतभद्र-स्वामी | गंधहस्ति | 84,000 | ई.600 |
पूज्यपाद-स्वामी | सर्वार्थसिद्धि | 4,000 | वि.श. 6 |
अकलंक-भट्ट | राजवार्तिक | 16,000 | ई.620-680 |
विद्यानंद-स्वामी | श्लोकवार्तिक | 20,000 | ई. 775-840 |
अष्ट-सहस्री | 8,000 | ||
आप्त-परीक्षा | 3,000 | ||
अभयनन्दि | तत्त्वार्थ वृत्ति | ई.श.10-11 | |
आ. शिवकोटि | रत्नमाला | ई.श. 11 | |
आ. भास्करनन्दि | सुखबोध | ई.श. 12 | |
आ. बालचन्द्र | कन्नड टीका | ई.श. 13 | |
प्रभाचन्द्र | तत्त्वार्थ रत्नप्रभाकर | ई. 1432 | |
योगदेव | तत्त्वार्थ वृत्ति | ई. 1579 | |
भट्टारक श्रुतसागर | तत्त्वार्थ वृत्ति | वि.श.16 | |
पं सदासुखदास | अर्थ-प्रकाशिका | ई. 1795-1866 |
राजवार्तिक :
सर्वविज्ञानमय, बाय-आभ्यन्तर लक्ष्मी के स्वामी और परमवीतराग श्रीमहावीर को प्रणाम करके तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थ को कहता हूँ। 1-2. उपयोगस्वरूप तथा श्रेयोमार्ग की प्राप्ति के पात्रभूत आत्मद्रव्य को ही मोक्षमार्ग के जानने की इच्छा होती है। जैसे आरोग्यलाभ करनेवाले चिकित्सा के योग्य रोगी के रहने पर ही चिकित्सामार्ग की खोज की जाती है, उसी तरह आत्मद्रव्य की प्रसिद्धि होने पर मोक्षमार्ग के अन्वेषण का औचित्य सिद्ध होता है। 3. संसारी आत्मा के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही अन्तिम और प्रधानभूत पुरुषार्थ है अतः उसकी प्राप्ति के लिए मोक्षमार्ग का उपदेश करना ही चाहिए। 4-8. प्रश्न – जब मोक्ष अन्तिम, अनुपम, श्रेष्ठ और प्रधान पुरुषार्थ है तब उसी का उपदेश करना चाहिए न कि उसके मार्ग का ? उत्तर – मोक्षार्थी भव्य ने मार्ग ही पूछा है अतः प्रश्नानुरूप मार्ग का ही उपदेश किया गया है । मोक्ष के सम्बन्ध में प्रायः सभी वादियों का एक मत है, सभी दुःखनिवृत्ति को मोक्ष मानते हैं, पर उसके मार्ग में विवाद है। जैसे विभिन्न दिशाओं से पटना जानेवाले यात्रियों को पटना नगर में विवाद नहीं होता किन्तु अपनी अपनी दिशा के अनुकूल मार्ग में विवाद होता है उसी तरह सर्वोच्च लक्ष्य भूत मोक्ष में वादियों को विवाद नहीं है किन्तु उसके मार्ग में विवाद है।
9-13. प्रश्न – मोक्ष जब प्रत्यक्ष से दिखाई नहीं देता तब उसके मार्ग का ढूंढना व्यर्थ है ? उत्तर – यद्यपि मोक्ष प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है फिर भी उसका अनुमान किया जा सकता है। जैसे घटीयन्त्र (रेहट) का घूमना उसके धुरे के घूमने से होता है और धुरे का घूमना उसमें जुते हुए बैल के घूमने पर । यदि बैल का घूमना बन्द हो जाय तो धुरे का घूमना रुक जाता है और धुरे के रुक जाने पर घटीयन्त्र का घूमना बन्द हो जाता है उसी तरह कर्मोदयरूपी बैल के चलने पर ही चार-गति रूपी धुरे का चक्र चलता है और चतुर्गतिरूपी धुरा ही अनेक प्रकार की शारीरिक मानसिक आदि वेदनाओंरूपी घटीयन्त्र को घुमाता रहता है । कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र रुक जाता है और उसके रुकने से संसाररूपी घटीयन्त्र का परिचलन समाप्त हो जाता है, इसी का नाम मोक्ष है। इस तरह साधारण अनुमान से मोक्ष की सिद्धि हो जाती है । समस्त शिष्टवादी अप्रत्यक्ष होने पर भी मोक्ष का सद्भाव स्वीकार करते हैं और उसके मार्ग का अन्वेषण करते हैं। जिस प्रकार भावी सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण आदि प्रत्यक्षसिद्ध नहीं हैं फिर भी आगम से उनका यथार्थबोध कर लिया जाता है उसी प्रकार मोक्ष भी आगम से सिद्ध हो जाता है। यदि प्रत्यक्ष सिद्ध न होने के कारण मोक्ष का निषेध किया जाता है तो सभी को स्व-सिद्धान्तविरोध होगा, क्योंकि सभी वादी कोई न कोई अप्रत्यक्ष पदार्थ मानते ही हैं। 14-16. प्रश्न – बन्ध के कारणों को पहिले बताना चाहिए था तभी मोक्ष के कारणों का वर्णन सुसंगत हो सकता है ? उत्तर – आगे आठवें अध्याय में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बन्ध का कारण बताया है। यद्यपि बन्धपूर्वक मोक्ष होता है अतः पहिले बन्धकारणों का निर्देश करना उचित था फिर भी मोक्षमार्ग का निर्देश आश्वासन के लिए किया है। जैसे जेल में पड़ा हुआ व्यक्ति बन्धन के कारणों को सुनकर डर जाता है और हताश हो जाता है पर यदि उसे मुक्ति का उपाय बताया जाता है तो उसे आश्वासन मिलता है और वह आशान्वित हो बन्धनमुक्ति का प्रयास करता है उसी तरह अनादि कर्मबन्धनबद्ध प्राणी प्रथम ही बन्ध के कारणों को सुनकर डर न जाय और मोक्ष के कारणों को सुनकर आश्वासन को प्राप्त हो इस उद्देश्य से मोक्षमार्ग का निर्देश सर्वप्रथम किया है। 17. अथवा, अन्यवादियों के द्वारा कहे गए ज्ञानमात्र और ज्ञान तथा चारित्र इन एक और दो मोक्षकारणों का निषेध करने के लिए जनसम्मत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को ही मोक्षमार्ग बताया गया है एक या दो को नहीं। |