+ मोक्ष का उपाय -
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥1॥
अन्वयार्थ : सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक्‌चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग हैं ॥१॥
Meaning : Right faith, right knowledge, and right conduct (together) constitute the path to liberation.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

'सम्‍यक्' शब्‍द अव्‍युत्‍पन्‍न अर्थात् रौढ़िक और व्‍युत्‍पन्‍न अर्थात् व्‍याकरण-सिद्ध है। जब यह व्‍याकरण से सिद्ध किया जाता है तब सम् उपसर्ग पूर्वक अञ्च धातु से क्विप् प्रत्‍यय करने पर 'सम्‍यक्' शब्‍द बनता है। संस्‍कृत में इसकी व्‍युत्‍पत्ति 'समञ्चति इति सम्‍यक्' इस प्रकार होती है। प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है। इसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें-से प्रत्‍येक शब्‍द के साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा - सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक्‍चारित्र। लक्षण और भेद के साथ इनका स्‍वरूप विस्‍तार से आगे कहेंगे। नाममात्र यहाँ कहते हैं - पदार्थों के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धान का संग्रह करने के लिए दर्शन के पहले सम्‍यक् विशेषण दिया है। जिस-जिस प्रकार से जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं उस-उस प्रकार से उनका जानना सम्‍यग्‍ज्ञान है । ज्ञान के पहले सम्‍यक् विशेषण विमोह (अनध्‍यवसाय), संशय और विपर्यय ज्ञानों का निराकरण करने के लिए दिया है । जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के उपरम होने को सम्‍यक्‍चारित्र कहते हैं । चारित्र के पहले 'सम्‍यक्' विशेषण अज्ञानपूर्वक आचरण के निराकरण करने के लिए दिया है । दर्शन, ज्ञान और चारित्रका व्‍युत्‍पत्‍यर्थ - दर्शन शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - 'पश्‍यति दृश्‍यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्' - जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखनामात्र । ज्ञान शब्दका व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है -'जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानम् - जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है या जानना मात्र । चारित्र शब्‍दका व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् - जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाता है या आचरण करना मात्र ।

शंका – दर्शन आदि शब्‍दों की इस प्रकार व्‍युत्‍पत्ति करने पर कर्त्ता और करण एक हो जाता है किन्‍तु यह बात विरुद्ध है ?

समाधान –
यद्यपि यह कहना सही है तथापि स्‍वपरिणाम और परिणामी में भेद की विवक्षा होने पर उक्त प्रकार से कथन किया गया है । जैसे 'अग्नि दाह परिणाम के द्वारा ईंधन को जलाती है यह कथन भेद-विवक्षा के होने पर ही बनता है । यहाँ चूँकि पर्याय और पर्यायी में एकत्‍व और अनेकत्‍व के प्रति अनेकान्‍त है, अत: स्‍वातन्‍त्र्य और पारतन्‍त्र्य विवक्षा के होने से एक ही पदार्थ में पूर्वोक्त कर्त्ता आदि साधनभाव विरोध को प्राप्‍त न‍हीं होता । जैसे कि अग्नि से दहन आदि क्रिया की अपेक्षा कर्त्ता आदि साधन भाव बन जाता है, वैसे ही प्रकृत में जानना चाहिए ।

शंका – सूत्र में पहले ज्ञान का ग्रहण करना उचित है, क्‍योंकि एक तो दर्शन ज्ञान-पूर्वक होता है और दूसरे ज्ञान में दर्शन शब्‍द की अपेक्षा कम अक्षर हैं ?

समाधान –
यह कहना युक्त नहीं कि दर्शन ज्ञान-पूर्वक होता है इसलिए सूत्र में ज्ञान को पहले ग्रहण करना चाहिए, क्‍योंकि दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्‍पन्‍न होते हैं । जैसे - मेघ-पटल के दूर हो जाने पर सूर्य के प्रताप और प्रकाश एक साथ व्‍यक्त होते हैं, उसी प्रकार जिस समय दर्शन-मोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने से आत्‍मा सम्‍यग्‍दर्शन पर्याय से आविर्भूत होता है उसी समय उसके मत्‍यज्ञान और श्रुताज्ञान का निराकरण होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रकट होते हैं । दूसरे, ऐसा नियम है कि सूत्र में अल्‍प अक्षरवाले शब्‍द से पूज्‍य शब्‍द पहले रखा जाता है, अत: पहले ज्ञान शब्‍द को न रखकर दर्शन शब्‍द को रखा है ।

शंका – सम्‍यग्‍दर्शन पूज्‍य क्‍यों है ?

समाधान –
क्‍योंकि सम्‍यग्‍दर्शन ज्ञान के सम्‍यक् व्‍यपदेश का हेतु है । चारित्र के पहले ज्ञान का प्रयोग किया है, क्‍योंकि चारित्र ज्ञान-पूर्वक होता है । सब कर्मों का जुदा होना मोक्ष है और उसकी प्राप्ति का उपाय मार्ग है । सूत्र में 'मार्ग:' इस प्रकार जो एक-वचन रूप से निर्देश किया है वह, सब मिलकर मोक्ष-मार्ग है, इस बात के जताने के लिए किया है । इससे प्रत्‍येक में मार्गपन है इस बात का निराकरण हो जाता है । अत: सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यग्‍चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष का साक्षात् मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए ।

अब आदि में कहे गये सम्‍यग्‍दर्शन के लक्षण का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों का सुमेल रूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। कोई व्याख्याकार कहते हैं कि - मोक्ष के कारण के निर्देश द्वारा शास्त्रानुपूर्वी रचने के लिए तथा शिष्य की शक्ति के अनुसार सिद्धान्त-प्रक्रिया बताने के लिए इस सूत्र की रचना हुई है। परन्तु यहां कोई शिष्याचार्य सम्बन्ध विवक्षित नहीं है किन्तु संसार-सागर में डूबते हुए अनेक प्राणियों के उद्धार की पुण्य-भावना से मोक्षमार्ग का निरूपण करनेवाले इस सूत्र की रचना की गई है।

1. दर्शनमोह-कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूप अन्तरङ्ग कारण से होनेवाले तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस अन्तरङ्ग-कारण की पूर्णता कहीं निसर्ग से होती है और कहीं अधिगम अर्थात् परोपदेश से होती है। इसी कारण से सम्यग्दर्शन भी निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का हो जाता है।

2. प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादितत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है।

3. संसार के कारणभूत रागद्वेषादि की निवृत्ति के लिए कृतसंकल्प विवेकी-पुरुष का शरीर और वचन की बाह्य क्रियाओं से और आभ्यन्तर मानस क्रिया से विरक्त होकर स्वस्वरूपस्थिति प्राप्त करना सम्यक्चारित्र है। पूर्ण यथाख्यात चारित्र वीतरागी-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में तथा जीवन्मुक्त केवली के होता है। उससे नीचे विविध प्रकार का तरतम चारित्र श्रावक और दसवें गुणस्थान तक के साधुओं को होता है।

4. ज्ञान और दर्शन शब्द करणसाधन हैं अर्थात् आत्मा की उस शक्ति का नाम ज्ञान है जिससे पदार्थ जाने जाते हैं और उस शक्ति का नाम दर्शन है जिससे तत्त्वश्रद्धान होता है। चारित्र शब्द कर्मसाधन है अर्थात् जो आचरण किया जाता है वह चारित्र है।

5-6. प्रश्न – यदि जिसके द्वारा जाना जाय उस करण को ज्ञान कहते हैं तो जैसे 'कुल्हाड़ी से लकड़ी काटते हैं' यहां कुल्हाड़ी और काटनेवाला दो जुदा पदार्थ हैं उसी तरह कर्ता आत्मा और करण-ज्ञान इन दोनों को दो जुदा पदार्थ होना चाहिए ?

उत्तर –
नहीं, जैसे 'अग्नि उष्णता से पदार्थ को जलाती है' यहाँ अग्नि और उष्णता दो जुदा पदार्थ नहीं है फिर भी कर्ता और करणरूप से भेदप्रयोग हो जाता है उसी तरह आत्मा और ज्ञान में भी जुदापन न होने पर भी कर्ता-करणरूप से भेद-व्यवहार हो जायगा । एवम्भूतनय की दृष्टि से ज्ञानक्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रिया में परिणत आत्मा दर्शन जैसे कि उष्णपर्याय में परिणत आत्मा अग्नि है। यदि अग्नि को उष्णस्वभाव नहीं माना जाय तो अग्नि का स्वरूप ही क्या रह जाता है जिससे उसे अग्नि कहा जा सकेगा? उसी तरह यदि आत्मा को ज्ञान-दर्शन-स्वरूप न माना जाय तो आत्मा का भी क्या स्वरूप बचेगा जिससे उस ज्ञान-दर्शनादिशून्य पदार्थ को आत्मा कह सकें ? अतः अखण्ड द्रव्यदृष्टि से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है।

7-8. प्रश्न – जिस प्रकार नीले रंग के सम्बन्ध से साड़ी या कम्बल आदि में 'नीला' यह प्रत्यय हो जाता है उसी तरह भिन्न ज्ञानगुण के सम्बन्ध से आत्मा ज्ञानवाला तथा भिन्न उष्णता के सम्बन्ध से अग्नि उष्ण बन जायगी ?

उत्तर –
नहीं, जैसे पुरुष से संयुक्त होने के पहिले डंडा एक स्वतन्त्र सिद्ध पदार्थ है और पुरुष भी दण्डसम्बन्ध के पहिले अपने लक्षणों से स्वतन्त्रसिद्ध पदार्थ है उसी तरह क्या उष्णसम्बन्ध के पहिले अग्नि स्वतः सिद्ध पदार्थ है ? क्या ज्ञान के सम्बन्ध के पहिले आत्मा स्वतःसिद्ध पदार्थ है ? दण्ड और पुरुष का तथा नीरंग और साड़ी का सम्बन्ध तो उचित है क्योंकि ये सब पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं । परन्तु ज्ञानादि के सम्बन्ध से पहिले ज्ञानादिशून्य आत्मा और उष्णगुण के सम्बन्ध के पहिले अनुष्ण अग्नि सिद्ध ही नहीं हैं। इसी तरह निराश्रय ज्ञान और उष्ण भी स्वतः सिद्ध पदार्थ नहीं हैं अतः इन्हें भिन्न मानकर इनके सम्बन्ध की कल्पना उचित नहीं है।

9. उष्णगुण के सम्बन्ध से पहिले अग्नि में 'उष्ण' यह ज्ञान होता है या नहीं ? यदि होता है, तो उष्णगुण के सम्बन्ध की आवश्यकता ही क्या है ? यदि नहीं, तो अनुष्णपदार्थ में उष्णगुण के सम्बन्ध से उष्ण व्यवहार हो ही नहीं सकता अन्यथा घटादि में भी उष्ण व्यवहार होना चाहिए। यदि अग्नि उष्णगुण के सम्बन्ध से उष्ण है तो उष्णगुण किसके सम्बन्ध से उष्ण होगा? यदि उष्णगुण में उष्णता लाने के लिए अन्य उष्णत्व का सम्बन्ध माना जाता है तो उस उष्णत्व में उष्णता लाने के लिए अन्य उष्णत्व मानना होगा, उसमें भी उष्णता लाने के लिए तदन्य उष्णत्व इस तरह अनवस्था नाम का दूषण होता है । यदि उष्णगुण में स्वतः ही उष्णता है तो अग्नि को ही स्वतः उष्ण मानने में क्या आपत्ति है ? फिर भिन्न पदार्थ के सम्बन्ध से भी प्रतीत होती है यह प्रतिज्ञा भी नहीं रही। इसी तरह आत्मा और ज्ञान में भी समझ लेना चाहिए। अतः आत्मा को स्वतः ज्ञानस्वरूप मानना चाहिए अन्यथा अनवस्था और प्रतिज्ञा-हानि दूषण आते हैं।

10. जिस प्रकार दण्ड का सम्बन्ध होने पर भी पुरुष स्वयं दण्ड नहीं बन जाता किन्तु दण्डवान् या दण्डी इस व्यवहार को ही प्राप्त होता है उसी तरह उष्णत्व नाम के विशिष्ट सामान्य के सम्बन्ध होने पर भी उष्णगुण 'उष्णत्ववान्' तो बन सकता है स्वतः उष्ण नहीं । इसी तरह अग्नि भी उष्णवान् बन सकती है स्वतः उष्ण नहीं, क्योंकि द्रव्य, गुण और सामान्य पदार्थ वैशेषिकों के मत से पृथक् स्वतन्त्र हैं।

11. प्रश्न – वैशेषिक समवाय नाम का सम्बन्ध मानते हैं, इससे अपृथक् सिद्ध पदार्थों में 'इह इदम्' यह प्रत्यय होता है और इसी से गुण-गुणी में अभेद की तरह भान होने लगता है। इस समवाय सम्बन्ध के कारण उष्णत्वसमवाय से उष्णगुण उष्ण बन जायगा और उष्णगुण के समवाय से अग्नि उष्ण हो जायगी ?

उत्तर –
नहीं, स्वतन्त्र पदार्थों में समवाय का कोई नियम नहीं बन सकता। जब अग्नि और उष्ण भिन्न हैं तब क्या कारण है कि उष्ण का समवाय अग्नि में ही होता है जल में नहीं ? उष्णत्व का समवाय उष्ण में ही होता है शीत में नहीं ? अतः उष्णता को अग्निद्रव्य का ही परिणमन मानना चाहिए, पृथक् पदार्थ नहीं।

12-13. समवाय नाम का स्वतन्त्र पदार्थ भी सिद्ध नहीं होता। जिस प्रकार गुण की गुणी में समवाय सम्बन्ध से वृत्ति मानी जाती है उसी तरह समवाय की गुण और गुणी में किस सम्बन्ध से वृत्ति होगी ? समवायान्तर से तो नहीं, क्योंकि समवाय पदार्थ एक ही स्वीकार किया गया है। संयोग से भी नहीं, क्योंकि दो पृथक् सिद्ध द्रव्यों में ही संयोग होता है। संयोग और समवाय से भिन्न तीसरा कोई सम्बन्ध है भी नहीं। अतः अपने समवायियों से असम्बद्ध होने के कारण समवाय नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध नहीं होता। यदि कहा जाय कि चूंकि समवाय 'सम्बन्ध' है अतः उसे स्व-सम्बन्धियों में रहने के लिए अन्य सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि संयोग से व्यभिचार-दूषण आता है। संयोग भी 'सम्बन्ध' है पर उसे स्व-सम्बन्धियों में समवाय से रहना पड़ता है।

14. जिस प्रकार दीपक स्व-प्रकाशी और पर-प्रकाशी दोनों है उसी प्रकार समवाय भी अन्य सम्बन्ध की अपेक्षा किए बिना स्वतः ही द्रव्यादि की परस्पर वृत्ति करा देगा तथा स्वयं भी उनमें रह जायगा।' यह तर्क उचित नहीं है ; क्योंकि ऐसा मानने से समवाय को द्रव्यादि की पर्याय ही माननी पड़ेगी। जैसे दीपक प्रकाशस्वरूप से अभिन्न है अतः स्वप्रकाश में उसे प्रकाशान्तर की आवश्यकता नहीं होती उसी तरह न केवल समवाय को ही, किन्तु गुण, कर्म, सामान्य और विशेष को भी द्रव्य की ही पर्यायविशेष मानना होगा। द्रव्य ही बाहय-आभ्यन्तर कारणों से गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय आदि पर्यायों को प्राप्त हो जाता है। दीपक का दृष्टान्त भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे दीपक घटादि प्रकाश्य पदार्थों से भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है उस तरह समवाय की द्रव्यादि से भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यदि गुणादि द्रव्य से भिन्न हों, तो द्रव्य में अद्रव्यत्व का प्रसंग तो होगा ही, साथ ही साथ निराश्रय होने से गुणादि का भी अभाव हो जायगा । अतः गुणादि को द्रव्य का ही पर्यायविशेष मानना युक्तिसंगत है।

15-16. जब ज्ञान क्षणिक तथा एकार्थग्राही है तब ऐसे ज्ञान से यह विवेक ही नहीं हो सकता कि युतसिद्धों-पृथक सिद्धों का संयोग होता है तथा अयुतसिद्धों का समवाय । संस्कार भी अनुभव के अनुसार ही होता है, अतः एकार्थग्राही ज्ञान से पड़ा हुआ संस्कार भी एकार्थग्राही ही फलित होता है इसलिये संस्कार से भी उक्त विवेक नहीं हो सकेगा। अथवा, ज्ञान आत्मा का स्वभाव होकर भी जब कथञ्चित् भिन्न विवक्षित हो जाता है तब एक ही आत्मा कर्ता और करण भी बन जाता है ।

17-18. पर्याय और पर्यायी के भेद और अभेद को अनेकान्तदृष्टि से देखना चाहिए। यथा, घट कपाल, सकोरा आदि पर्यायों में मृद्रप द्रव्य की दृष्टि से कथञ्चित् एकत्व है तथा उन घट आदि पर्यायों की दृष्टि से विभिन्नता है उसी तरह आत्मा और ज्ञानादि गुणों में द्रव्यदृष्टि से एकता है तथा गुण और गुणी की दृष्टि से विभिन्नता है। आत्मा ही बाहय और आभ्यन्तर कारणों से ज्ञानादि पर्यायों को प्राप्त होता है और ज्ञान दर्शन आदि व्यवहारों का विषय बन जाता है। वस्तुतः आत्मा और ज्ञानादि भिन्न नहीं है। यदि यह ऐकान्तिक नियम बनाया जाय कि कर्ता और करण को भिन्न ही होना चाहिए तो 'वृक्ष शाखाओं के भार से टूट रहा है' यहां वक्ष और शाखाभार में भी भेद मानना होगा । पर ऐसा है नहीं, क्योंकि शाखाभार को छोड़कर वृक्ष की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसी तरह आत्मा को छोड़कर ज्ञान का और ज्ञानादि को छोड़कर आत्मा का पृथक् अस्तित्व नहीं है।

19-21. जैसे द्रव्य मूर्त भी होते हैं तथा अमूर्त भी उसी तरह करण दो प्रकार का होता है - एक विभक्तकर्तृक-जिनका कर्ता जुदा और करण जुदा होता है और दूसरा अविभक्तकर्तृक । 'कुल्हाड़ीसे लकड़ी काटी जाती है' यहां कुल्हाड़ी विभक्तकर्तृक करण है तथा 'वृक्ष शाखाओं के भार से टूटता है' यहां शाखाभार अविभक्तकर्तृक करण है। इसी तरह 'अग्नि उष्णता से जलाती है' 'आत्मा ज्ञान से जानता है' यहां उष्णता और ज्ञान अविभक्तकर्तृक करण हैं क्योंकि उष्णता की अग्नि से तथा ज्ञान की आत्मा से पृथक् सत्ता ही नहीं है। जैसे 'कुशूल टूट रहा है' यहां जब कुशूल स्वयं ही नष्ट हो रहा है तो स्वयं ही कर्ता और स्वयं ही करण बन जाता है उसी तरह आत्मा ही ज्ञाता और ज्ञान होकर कर्ता और करण रूप बन जाता है।

एक ही अर्थ की अनेक पर्याएं होती हैं। जैसे एक ही देवराज इन्द्र शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायों को धारण करता है ।
  • इन्दन क्रिया के समय इन्द्र,
  • शासन क्रिया के समय शक्र तथा
  • पूरण क्रिया के समय पुरन्दर कहा जाता है।
देवराज से उक्त तीनों अवस्थाएँ सर्वथा भिन्न नहीं हैं क्योंकि एक ही देवराज उन तीन अवस्थारूप होता है। वे देवराज से अभिन्न हैं, इसलिए वह जिस रूप से इन्द्र है उसी रूप से शक्र, और पुरन्दर भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन्द्रादि अवस्थाएं जुदी-जुदी हैं, उसी तरह एक ही आत्मा का ज्ञान दर्शन आदि अवस्थाओं से कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद है । अतः ज्ञानादिक को आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं कहा जा सकता।

22-23. अथवा, ज्ञान दर्शन आदि शब्दों को कर्तृ साधन मानना चाहिए ।
  • 'जानाति इति ज्ञानम्' अर्थात् जो जाने सो ज्ञान,
  • 'पश्यतीति दर्शनम्' अर्थात् जो तत्त्वश्रद्धा करे वह दर्शन,
  • 'चरतीति चारित्रम्'-अर्थात् जो आचरण करे वह चारित्र ।
तात्पर्य यह कि ज्ञानादि पर्यायों से परिणत आत्मा ही ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप होता है, इसलिए कर्ता और करण की भिन्नता का सिद्धान्त मानकर आत्मा और ज्ञान में भेद करना उचित नहीं है। व्याकरण शास्त्र से भी ज्ञान दर्शन चारित्र आदि शब्दों में होनेवाले युट् और णित्र प्रत्यय कर्ता आदि सभी साधनों में होते हैं अतः कोई शाब्दिक विरोध भी नहीं है।

24. अथवा, ज्ञान दर्शनादि शब्दों को भावसाधन कहना चाहिए -
  • 'ज्ञातिर्ज्ञानम्' अर्थात् जाननेरूप क्रिया,
  • 'दृष्टिदर्शनम्' अर्थात् तत्त्वश्रद्धान,
  • 'चरणं चारित्रम्' अर्थात् आचरण ।
उदासीनरूप से स्थित ज्ञान दर्शनादि क्रियाएं ही मोक्षमार्ग हैं। क्रिया में व्याप्त ज्ञानादि में तो यथासंभव कर्तृ साधन करणसाधन आदि व्यवहार होंगे।

25. प्रश्न – यदि ज्ञान को ही आत्मा कहा जाता है तो ज्ञान शब्द को आत्मा शब्द की तरह पुल्लिंग और एकवचन होना चाहिए ?

उत्तर –
नहीं, एक ही अर्थ में व्यक्तिभेद से लिंगभेद और वचनभेद हो जाता है। जैसे कि - 'गेहं कुटी मठः' यहां एक ही घर रूप अर्थ में विभिन्न लिङ्गवाले शब्दों का प्रयोग है। 'पुष्यः तारका नक्षत्रम्' यहां एक ही तारारूप अर्थ में विभिन्नलिङ्गक और विभिन्न वचनवाले शब्दों का प्रयोग है।

26-29. प्रश्न – सूत्र में ज्ञान शब्द का ग्रहण पहिले करना चाहिए क्योंकि ज्ञानशब्द दर्शन शब्द से थोड़े अक्षरोंवाला है और ज्ञानपूर्वक ही दर्शन होता है अतः पूर्ववर्ती भी है ?

उत्तर –
नहीं, जैसे मेघपटल के हटते ही सूर्य का प्रकाश और प्रताप एक साथ ही फैलता है उसी तरह दर्शनमोह का उपशम क्षय या क्षयोपशम होते ही आत्मा में ज्ञान और दर्शन की युगपत् वृत्ति होती है। तात्पर्य यह कि जिस समय आत्मा में सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसी समय उसके मत्यज्ञान श्रुताज्ञान आदि मतिज्ञान श्रुतज्ञान आदि रूप से सम्यग्ज्ञान बन जाते हैं अतः दोनों में पौर्वापर्य नहीं है।

थोड़े अक्षर होने के कारण ही पूर्वग्रहण नहीं होता, जो पूज्य होता है उसका अधिकाक्षर होने पर भी पूर्वग्रहण करना न्याय्य है। दर्शन ही ज्ञान में सम्यक्त्व लाने के कारण पूज्य है, अतः उसका ही प्रथम ग्रहण करना न्याय्य है।

30. सूत्र में दर्शन और चारित्र के बीच में ज्ञान का ग्रहण किया गया है; क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक ही होता है।

31-33. 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' यहाँ सर्वपदार्थप्रधान द्वन्द्व समास है। इसका यह तात्पर्य है कि मोक्षमार्ग के प्रति तीनों की प्रधानता है किसी एक की नहीं। इसीलिए बहुवचन का प्रयोग है। 'द्वन्द्व समास के साथ कोई भी विशेषण चाहे वह आदि में प्रयुक्त हो या अन्त में सबके साथ जुट जाता है' यह नियम है अतः सम्यक् विशेषण का दर्शनादि के साथ अन्वय हो जाता है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । जैसे कि 'देवदत्त जिनदत्त यज्ञदत्त को भोजन कराओ' यहाँ भोजन क्रिया का तीनों में अन्वय हो जाता है।

34. 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' इस बहुवचन पद के साथ समानाधिकरण होने से मार्ग शब्द में बहुवचन और नपुसक लिंग नहीं हो सकता, क्योंकि मार्गस्वभावता तीनों में समान रूप से होने के कारण उस मार्गस्वभावता की प्रधानता पर दृष्टि रखने से उसमें पुल्लिंगता और एकवचनत्व रखने में कोई विरोध नहीं है।

35. समस्त कर्मों के आत्यन्तिक उच्छेद को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष शब्द 'मोक्षणं मोक्षः' इस प्रकार कियाप्रधान भावसाधन है, 'मोक्ष असने' धातु से बना है।

36-37. मार्गशब्द प्रसिद्ध मार्ग की तरह है। जैसे कांटे आदि से रहित राजमार्ग से यात्री अपने गन्तव्य स्थान को सुखपूर्वक पहुँच जाता है उसी तरह मिथ्यादर्शनादि कंटकों से रहित सम्यग्दर्शनादि मार्ग से मोक्षनगर तक सुखपूर्वक पहुंचा जा सकता है। मार्ग धातु अन्वेषण अर्थ में है अर्थात् मोक्ष जिसके द्वारा ढूंडा जाय उन सम्यग्दर्शनादि को मार्ग कहते हैं।

38. जिस प्रकार वातादि के विकार से उत्पन्न होनेवाले रोगों के निदान को नष्ट करने के कारण औषधि आरोग्य का मार्ग कहलाती है उसी तरह संसार रोगरूप मिथ्यादर्शनादि के कारणों को नष्ट करने के कारण सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के मार्ग कहे जाते हैं।

39-46 शंका – मिथ्याज्ञान से ही सभी वादियों ने बन्ध माना है अतः मोक्ष भी केवल सम्यग्ज्ञान से ही होना चाहिए अतः सम्यग्दर्शनादि तीन मोक्ष के मार्ग नहीं हो सकते । यथा

सांख्य (40-41) धर्म से ब्राह्म सौम्य आदि उच्च योनियों में जन्म लेना पड़ता है तथा अधर्म से मानुष पशु आदि नीच योनियों में। प्रकृति और पुरुष में विवेक ज्ञान होने से मोक्ष होता है तथा प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्यय ज्ञान से बन्ध । जबतक पुरुष को महान् बुद्धि, अहंकार, पांच तन्मात्राएं - स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द, अहंकारजन्य पांच इन्द्रियां पांच भौतिक शरीर आदि अनात्मीय पदार्थों में 'मैं सुनता हूं, मैं देखता हूं' आदि मिथ्या ज्ञान होता है, वह शरीर को ही आत्मा मानता है तब तक इसको विपर्ययज्ञान के कारण बन्ध होता है और वह संसारी है । पर जब इसे प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान हो जाता है, वह पुरुष के सिवाय यावत् पदार्थों को प्रकृतिकृत और त्रिगुणात्मक मानकर उनसे विरक्त होकर 'इनमें मैं नहीं हूं, मेरे ये नहीं हैं' यह परम विवेकज्ञान जाग्रत होता है तब सम्यग्ज्ञान से मोक्ष हो जाता है । तात्पर्य यह कि सांख्य विपर्यय से बन्ध और ज्ञान से मोक्ष मानता है।

वैशेषिक - इच्छा और द्वेष से धर्म और अधर्म की प्रवृत्ति होती है उनसे सुख और दुःख रूप संसार । जिस पुरुष को तत्त्वज्ञान हो जाता है उसे इच्छा और द्वेष नहीं होते, इनके न होने से धर्म-अधर्म नहीं होते, धर्म और अधर्म के न होने से नए शरीर और मन का संयोग नहीं होता, जन्म नहीं होता और संचित कर्मों का निरोध हो जाने से मोक्ष हो जाता है। जैसे प्रदीप के बुझ जाने से प्रकाश का अभाव हो जाता है उसी तरह धर्म और अधर्म रूप बन्धन के हट जाने पर जन्म-मरण-चक्ररूप संसार का अभाव हो जाता है । अतः षट्पदार्थ का तत्त्वज्ञान होते ही अनागत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति नहीं होगी और संचित धर्माधर्म का उपभोग और ज्ञानाग्नि से विनाश होकर मोक्ष हो जाता है। अतः वैशेषिक के मत से भी विपर्यय बन्ध का कारण है और तत्त्वज्ञान मोक्ष का ।

नैयायिक - तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होने पर क्रमशः दोष प्रवृत्ति जन्म और दुःख को निवृत्ति होने को मोक्ष कहते हैं। दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान का कारणकार्यभाव है अर्थात् मिथ्याज्ञान का कार्य दोष, दोष का कार्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति का कार्य जन्म और जन्म का कार्य दुःख है। अतः कारण की निवृत्ति होने पर कार्य की निवृत्ति होना स्वाभाविक ही है। आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति को ही मोक्ष कहते हैं।

बौद्ध - अविद्या से बन्ध तथा विद्या से मोक्ष मानते हैं। अनित्य अनात्मक अशुचि और दुःखरूप सभी पदार्थों को नित्य सात्मक शुचि और सुखरूप मानना अविद्या है । इस अविद्या से रागादिक संस्कार उत्पन्न होते हैं । संस्कार तीन प्रकारके हैं - १ पुण्योपग (शुभ), २ अपुण्योपग (अशुभ), ३ आनेज्योपग (अनुभयरूप)। वस्तु को प्रतिविज्ञप्ति को विज्ञान कहते हैं। इन संस्कारों के कारण वस्तु में इष्ट अनिष्ट प्रतिविज्ञप्ति होती है, इसीलिए संस्कार विज्ञान में प्रत्यय अर्थात् कारण माना जाता है । इस विज्ञान से नाम अर्थात् चार अरूपी स्कन्ध-वेदना संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, तथा रूप अर्थात रूपस्कंध - पृथिवी, जल, अग्नि और वायु उत्पन्न होता है। इस पंचस्कन्ध को नामरूप कहते हैं । विज्ञान से ही नाम और रूप को नामरूप संज्ञाएं मिलती हैं अतः इन्हें विज्ञानसम्भूत कहा गया है । इस नामरूप से ही चक्षु आदि पांच इन्द्रियां और मन ये षडायतन होते हैं। अतः षडायतन को नामरूपप्रत्यय कहा है। विषय इन्द्रिय और विज्ञान के सन्निपात को स्पर्श कहते हैं। छह आयतन द्वारों का विषयाभिमुख होकर प्रथम ज्ञानतन्तुओं को जाग्रत करना स्पर्श है। स्पर्श के अनुसार वेदना अर्थात् अनुभव होता है। वेदना के बाद उसमें होनेवाली आसक्ति तृष्णा कहलाती है। उन उन अनुभवों में रस लेना, उनका अभिनन्दन करना, उनमें लीन रहना तृष्णा है । तृष्णा की वृद्धि से उपादान होता है । यह इच्छा होती है कि मेरी यह प्रिया मेरे साथ सदा बनी रहे, मुझमें सानुराग रहे और इसीलिए तृष्णातुर व्यक्ति उपादान करता है । इस उपादान से ही पुनर्भव अर्थात् परलोक को उत्पन्न करनेवाला कर्म होता है। इसे भव कहते हैं। यह कर्म मन, वचन और काय इन तीनों से उत्पन्न होता है। इससे परलोक में नए शरीर आदि का उत्पन्न होना जाति है। शरीर स्कन्ध का पक जाना जरा है और उस स्कन्ध का विनाश मरण कहलाता है। इसीलिए जरा और मरण को जातिप्रत्यय बताया है। इस तरह यह द्वादशांगवाला चक्र परस्परहेतुक है । इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं। प्रतीत्य अर्थात् एक को निमित्त बनाकर अन्य का समुत्पाद अर्थात् उत्पन्न होना। इसके कारण यह भवचक्र बराबर चलता रहता है। जब सब पदार्थों में अनित्य निरात्मक अशुचि और दुःख रूप तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है तब अविद्या नष्ट हो जाती है, फिर अविद्या के विनाश से क्रमश: संस्कार आदि नष्ट होकर मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस तरह बौद्धमत में भी अविद्या से बन्ध और विद्या से मोक्ष माना गया है।

जैनसिद्धान्त में भी मिथ्यादर्शन, अविरति आदि को बन्धहेतु बताया है। पदार्थों में विपरीत अभिप्राय का होना ही मिथ्यादर्शन है और यह मिथ्यादर्शन अज्ञान से होता है अत: अज्ञान ही बन्धहेतु फलित होता है । 'सामायिक मात्र से अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं' इस आर्ष वचन में ज्ञानरूप सामायिक से स्पष्टतया सिद्धि का वर्णन है। अत: जब अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष यह सभी वादियों को निर्विवाद रूप से स्वीकृत है तब सम्यग्दर्शनादि तीन को मोक्ष का मार्ग मानना उपयक्त नहीं है।

एक बार एक लड़के को हाथी ने मार डाला। एक वणिक् ने समझा कि मेरा लड़का मर गया है और वह पुत्र-शोक में बेहोश हो गया। जब कुशल मित्रों ने होश में लाकर उस वणिक् को उसका जीवित पुत्र दिखाया तब उसे यह ज्ञान हुआ कि मेरा पुत्र जीवित है, मेरे पुत्र के समान कोई रूपवाला दूसरा ही लड़का मरा है तो वह स्वस्थ हो गया । इस लौकिक दृष्टान्त से भी यह सिद्ध होता है कि अज्ञान से दुःख अर्थात् बन्ध और ज्ञान से सुख अर्थात् मोक्ष होता है।

47.
समाधान –
यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति का सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों से अविनाभाव है, वह इनके बिना नहीं हो सकती। जैसे मात्र रसायन के श्रद्धान ज्ञान या आचरण मात्र से रसायन का फल-आरोग्य नहीं मिलता। पूर्णफल की प्राप्ति के लिए रसायन का विश्वास ज्ञान और उसका सेवन आवश्यक ही है उसी तरह संसार व्याधि की निवृत्ति भी तत्त्वश्रद्धान ज्ञान और चारित्र से ही हो सकती है। अतः तीनों को ही मोक्षमार्ग मानना उचित है। 'अनन्ताः सामायिकसिद्धाः' वचन भी तीनों के मोक्षमार्ग का समर्थन करता है। ज्ञानरूप आत्मा के तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही सामायिक-समताभाव रूप चारित्र हो सकता है। सामायिक अर्थात् समस्त पापयोगों से निवृत्त होकर अभेद समता और वीतरागता में प्रतिष्ठित होना। कहा भी है - क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियों की क्रिया निष्फल है। दावानल से व्याप्त वन में जिसप्रकार अन्धा व्यक्ति इधर-उधर भागकर भी जल जाता है उसी तरह लँगड़ा देखता हुआ भी जल जाता है । एक चक्र से रथ नहीं चलता। अतः ज्ञान और क्रिया का संयोग ही कार्यकारी है। यदि अन्धा और लँगड़ा दोनों मिल जाय और अन्धे के कन्धे पर लंगड़ा बैठ जाय तो दोनों ही का उद्धार हो जाय । लँगड़ा रास्ता बताकर ज्ञान का कार्य करे और अन्धा पैरों चलकर चारित्र का कार्य करे तो दोनों ही नगरमें आ सकते हैं।

48-51. यदि ज्ञानमात्र से ही मोक्ष माना जाय तो पूर्णज्ञान की प्राप्ति के द्वितीय क्षण में ही मोक्ष हो जायगा। एक क्षण भी पूर्णज्ञान के बाद संसार में ठहरना नहीं हो सकेगा, उपदेश, तीर्थप्रवृत्ति आदि कुछ भी नहीं हो सकेंगे। यह संभव ही नहीं है कि दीपक भी जल जाय और अँधेरा भी रह जाय। उसी तरह यदि ज्ञानमात्र से मोक्ष हो तो यह संभव ही नहीं हो सकता कि ज्ञान भी हो जाय और मोक्ष न हो। यदि पूर्णज्ञान होने पर भी कुछ संस्कार ऐसे रह जाते हैं जिनका नाश हुए बिना मुक्ति नहीं होती और जब तक उन संस्कारों का क्षय नहीं होता तब तक उपदेश आदि हो सकते हैं, तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि संस्कारक्षय से मुक्ति होगी ज्ञानमात्र से नहीं। फिर यह बताइये कि संस्कारों का क्षय ज्ञान से होगा या अन्य किसी कारण से ? यदि ज्ञान से, तो ज्ञान होते ही संस्कारों का क्षय भी हो जायगा और तुरंत ही मुक्ति हो जाने से तीर्थोपदेश आदि नहीं बन सकेंगे। यदि संस्कार क्षय के लिए अन्य कारण अपेक्षित है तो वह चारित्र ही हो सकता है, अन्य नहीं । अतः ज्ञानमात्र से मोक्ष मानना उचित नहीं है। यदि ज्ञानमात्र से ही मोक्ष हो जाय तो सिर का मुंडाना, गेरुआ वेष, यम, नियम, जपतप, दीक्षा आदि सभी व्यर्थ हो जाएँगे।

52. इसी तरह ज्ञान और वैराग्य से भी मुक्ति मानने पर तीर्थोपदेश आदि नहीं बन सकेंगे। क्योंकि तत्त्वज्ञान होते ही विषयविरक्तिरूप वैराग्य अवश्य ही होगा और तुरंत मोक्ष हो जाने पर संसार में ठहरना ही नहीं हो सकेगा।

53-55. यदि आत्मा को नित्य और व्यापक माना जाता है तो उसमें न तो ज्ञानादि की उत्पत्ति ही हो सकती है और न हलन-चलन रूप क्रिया ही। इस तरह किसी भी प्रकार की विक्रिया अर्थात् परिणमन न हो सकने के कारण ज्ञान और वैराग्यरूप कारणों की संभावना ही नहीं है। आत्मा इन्द्रिय, मन और अर्थ के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान निर्विकारी आत्मा में कैसे पैदा होगा ? जब आत्मा सदा एकसा रहता है, उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन असंभव है तो कूटस्थ नित्य आकाश की तरह मोक्ष आदि नहीं बन सकेंगे।

इसी तरह आत्मा को सर्वथा क्षणिक अर्थात प्रतिक्षण निरन्वयविनाशी माननेपर भी ज्ञान वैराग्यादि परिणमनों का आधारभूत पदार्थ न होने से मोक्ष नहीं बन सकेगा। जिस मत में सभी संस्कार क्षणिक हैं उसके यहाँ ज्ञानादि का उत्पत्ति के बाद ही तुरंत नाश हो जाने पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध आदि नहीं बनेंगे और समस्त अनुभवसिद्ध लोकव्यवहारों का लोप हो जायगा। क्षणों की अवास्तविक सन्तान मानना निरर्थक ही है। यदि सन्तान क्षणों से अभिन्न है तो क्षणों की तरह ही निरन्वय क्षणिक होगी। ऐसी दशा में उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। यदि क्षणों से भिन्न है तो उससे क्षणों का परस्पर समन्वय कैसे हो सकेगा? आदि अनेक दूषण आते हैं।

56. जिस पुरुष ने स्थाणु और पुरुष को पृथक् अनुभव किया हो उसको अन्धकार इन्द्रिय दोष आदि से स्थाणु में पुरुषभान रूप विपर्यय होता है। जिसने आज तक स्थाणु और पुरुषगत विशेषों को नहीं जाना है उसे विपर्यय हो ही नहीं सकता। इस तरह जब अनादि से पुरुष और प्रकृति में भेदोपलब्धि नहीं हुई तब विपर्यय कैसे हो सकता है ? इसी तरह बौद्धमत में भी जब पहिले कभी अनित्य अनात्मक अशुचि दुःखरूप से प्रतीति नहीं हुई तब विपर्यय कैसे हो सकता है ? यदि सांख्य यह कहे कि - हां, पहिले कभी प्रकृति और पुरुष में भेदोपलब्धि हुई है, तो उसी समय भेदविज्ञान से मुक्ति हो जाना चाहिए थी, फिर आज बन्ध कैसा? इसी प्रकार यदि बौद्ध को अनित्यादि रूप से पहिले कभी प्रतीति हुई हो तो उसे भी मोक्ष हो जाना चाहिए था।

57. जिनके मत में एक ज्ञान एक ही अर्थ को जानता है उनके यहां स्थाणु विषयक ज्ञान स्थाणु को ही जानेगा तथा पुरुषविषयक ज्ञान पुरुष को ही। अतः एक ज्ञान का दो अर्थों को जानना जब संभव ही नहीं है तब न तो संशय हो सकता है और न विपर्यय ही। अतः एकार्थग्राहिज्ञानवादी के मत से न तो विपर्यय होगा न बंध और न मोक्ष ।

58-60. शंका – ज्ञान और दर्शन चूंकि एक साथ उत्पन्न होते हैं अतः इन्हें एक ही मानना चाहिए ?

समाधान –
जिस प्रकार ताप और प्रकाश एक साथ होकर भी दाह और प्रकाशन रूप अपने भिन्न लक्षणों से अनेक हैं, उसी तरह तत्त्वज्ञान और तत्त्वश्रद्धानरूप भिन्न लक्षणों से ज्ञान और दर्शन भी भिन्न भिन्न हैं। फिर, यह कोई नियम नहीं है कि जो एक साथ उत्पन्न हों वे एक हों। गाय के दोनों सींग एक साथ उत्पन्न होते हैं पर अनेक हैं, अतः इस पक्ष में दृष्टविरोध दोष आता है। जैनदर्शन में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों से वस्तु का विवेचन किया जाता है। अतः द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता और पर्यायार्थिक नय की गौणता करने पर ज्ञान और दर्शन में एकत्व भी है। जैसे परमाणु आदि पुद्गलद्रव्यों में बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से एक साथ रूपरसादि परिणमन होता है फिर भी रूप-रस आदि में परस्पर एकत्व नहीं है उसी तरह ज्ञान और दर्शन में भी समझना चाहिए। अथवा, जैसे अनादि पारिणामिक पुद्गलद्रव्य की विवक्षा में द्रव्यार्थिक-नय की प्रधानता और पर्यायाथिक-नय की गौणता रहने पर रूप, रस आदि में एकत्व है क्योंकि वही द्रव्य रूप है और वही द्रव्य रस, उसी तरह अनादिपारिणामिक चैतन्यमय जीवद्रव्य की विवक्षा रहने पर ज्ञान और दर्शन में अभेद है क्योंकि वही आत्मद्रव्य ज्ञानरूप होता है तथा वही आत्मद्रव्य दर्शनरूप । जब हम उन-उन पर्यायों की विवक्षा करते हैं तब ज्ञानपर्याय भिन्न है तथा दर्शन पर्याय भिन्न ।

61-64. प्रश्न – ज्ञान और चारित्र में कालभेद नहीं है अतः दोनों को एक ही मानना चाहिए। किसी व्यभिचारी पुरुष ने अंधेरी रात में मार्ग में जाती हुई अपनी व्यभिचारिणी माता को ही छेड़ दिया। इसी समय बिजली चमकी। उस समय जैसे ही उसे यह ज्ञान हुआ कि यह 'मां' है वैसे ही तुरंत वह अगम्यागमन से निवृत्त हो जाता है, इसी तरह जैसे ही इस जीव को यह सम्यग्ज्ञान होता है कि जीवहिंसा नहीं करनी चाहिए वैसे ही वह हिंसा से निवृत्त हो जाता है । अतः ज्ञान और चारित्र में कालभेद नहीं है और इसीलिए इन्हें एक मानना चाहिए।

उत्तर –
जिस प्रकार सुई से ऊपर नीचे रखे हुए 100 कमलपत्रों को एक साथ छेदने पर सूक्ष्म कालभेद की प्रतीति नहीं होती यद्यपि वहां कालभेद है उसी तरह ज्ञान और चारित्र में भी सूक्ष्म कालभेद का भान नहीं हो पाता, कारण काल अत्यन्त सूक्ष्म है । ज्ञान और चारित्र में अर्थभेद भी है - ज्ञान जानने को कहते हैं तथा चारित्र कर्मबन्ध की कारण क्रियाओं की निवृत्ति को। फिर यह कोई नियम नहीं है कि जिनमें कालभेद न हो उनमें अर्थभेद भी न हो। देखो, जिस समय देवदत्त का जन्म होता है उसी समय मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, शरीर, वर्ण, गन्ध आदि का भी उदय होता है पर सबके अर्थ जुदे-जुदे हैं। इसी तरह ज्ञान और चारित्र के भी अर्थ भिन्न-भिन्न हैं ।

यह पहिले कह भी चुके हैं कि द्रव्यार्थिक-दृष्टि से ज्ञानादिक में एकत्व है तथा पर्यायार्थिक-दृष्टि से अनेकत्व।

65-66. प्रश्न – यदि दर्शन ज्ञान आदि में लक्षण भेद है तो ये मिलकर एक मार्ग नहीं हो सकते, इन्हें तीन मार्ग मानना चाहिए ?

उत्तर –
यद्यपि इनमें लक्षणभेद है फिर भी ये मिलकर एक ऐसी आत्मज्योति उत्पन्न करते हैं जो अखण्डभाव से एक मार्ग बन जाती है जैसे कि दीपक, बत्ती, तेल आदि विलक्षण पदार्थ मिलकर एक दीपक बन जाते हैं। इसमें किसी वादी को विवाद भी नहीं है।
  • सांख्य प्रसादलाघव-शोषताप-आवरणसादन रूप से भिन्न लक्षणवाले सत्त्व, रज और तम इन तीनों की साम्यावस्था को एक प्रधान तत्त्व मानते हैं ।
  • बौद्ध कक्खडकर्कश द्रव उष्ण आदि रूप से भिन्न लक्षणवाले पथिवी, जल, तेज और वाय इन चार भूतों तथा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इन चार भौतिकों के समदाय को एक रूपपरमाणु मानते हैं। इसी तरह रागादि धर्म और प्रमाण प्रमेय अधिगम आदि धर्मों का समावेश एक ही विज्ञान में माना जाता है ।
  • नैयायिकादि भिन्न रंगवाले सूत से एक चित्रपट मान लेते हैं।
उसी तरह भिन्न लक्षणवाले सम्यग्दर्शनादि तीनों एक मार्ग बन सकते हैं।

67-68. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में पूर्व की प्राप्ति होने पर उत्तर की प्राप्ति भजनीय है अर्थात् हो भी न भी हो। किन्तु उत्तर की प्राप्ति में पूर्व का लाभ निश्चित है - वह होगा ही। जैसे जिसे सम्यक्चारित्र होगा उसे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन होंगे ही पर जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्णसम्यग्ज्ञान और चारित्र हो भी और न भी हो।

69-71. शंका – पूर्व सम्यग्दर्शन के लाभ में उत्तर ज्ञान का लाभ भजनीय है अर्थात् हो भी न भी हो यह नियम उचित नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर भी ज्ञान यदि नहीं होता तो अज्ञानपूर्वक श्रद्धान का प्रसङ्ग होता है। फिर जब तक स्वतत्त्व का ज्ञान नहीं किया गया तब तक उसका श्रद्धान कैसा? जैसे कि अज्ञात फल के सम्बन्ध में यह विधान नहीं किया जा सकता कि 'इस फल के रस से यह आरोग्य आदि होता है उसी तरह अज्ञात तत्त्व का श्रद्धान भी नहीं किया जा सकता। ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव है अतः वह न्यूनाधिक रूप में सदा स्थायी गुण है उसे कभी भी भजनीय नहीं कहा जा सकता अन्यथा आत्मा का ही अभाव हो जायगा, क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर मिथ्याज्ञान की तो निवृत्ति हो जायगी और सम्यग्ज्ञान नियमतः होगा नहीं, अतः सर्वथा ज्ञानाभाव से आत्मा का ही अभाव हो जायगा।

72.
समाधान –
पूर्ण ज्ञान को भजनीय कहा है न कि ज्ञान-सामान्य को। ज्ञान की पूर्णता श्रुतकेवली और केवलीके होती है। सम्यग्दर्शन होने पर पूर्ण द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान अवश्य हो ही जायगा यह नियम नहीं है। इसी तरह चारित्र भी यथासंभव देशसंयत को सकलसंयम यथाख्यात आदि भजनीय हैं।

73. 'पूर्व-अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के लाभ में चारित्र भजनीय है' यह अर्थ करना उचित नहीं है क्योंकि वार्तिक में 'पूर्वस्य' यह एक वचनपद है अतः इससे एक का ही ग्रहण हो सकता। यदि दो की विवक्षा होती तो 'पूर्वयोः' ऐसा द्विवचनान्त पद देना चाहिए था। यदि एकवचन के द्वारा भी सामान्य रूप से दो का ग्रहण किया जाता है तो 'भजनीयमुत्तरम्' यहां भी 'उत्तरम्' इस एकवचन पद के द्वारा ज्ञान और चारित्र दो का ग्रहण होने से पूर्वोक्त दोष बना ही रहता है। अथवा, क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर क्षायिक ज्ञान भजनीय है - हो अथवा न हो' यह व्याख्या कर लेनी चाहिए । अथवा, 'सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों की एक साथ उत्पत्ति होती है अतः नारद और पर्वत के साहचर्य की तरह एक के ग्रहण से दूसरे का भी ग्रहण हो ही जाता है अतः पूर्व अर्थात् सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान का लाभ होने पर भी उत्तर अर्थात् चारित्र भजनीय है' यह अर्थ भी किया जा सकता है ।