राजवार्तिक : 1-3 व्याकरणशास्त्र के 'अल्प अक्षरवाले पद का पूर्व प्रयोग करना चाहिए' इस नियम के अनुसार नय का प्रथम ग्रहण करना चाहिए था; किन्तु उक्त नियम के बाधक 'पूज्य का पूर्व निपात होता है' इस नियम के अनुसार 'प्रमाण' पद का प्रथम ग्रहण किया है । प्रमाण के द्वारा प्रकाशित ही अर्थ के एक-देश में नय की प्रवृत्ति होती है अतः प्रमाण पूज्य है । प्रमाण समुदाय को विषय करता है तथा नय अवयव को। प्रमाण सकलादेशी होता है तथा नय विकलादेशी।
4. ज्ञान स्वाधिगम हेतु होता है जो प्रमाण और नयरूप होता है। वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनात्मक स्याद्वाद श्रुत के द्वारा जीवादि की प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूप से जानी जाती है।
5. प्रश्न के अनुसार एक वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधि-प्रतिषेध धर्मों की कल्पना सप्तभंगी है। एक ही घड़े का गौण और मुख्य रूप से 1 स्यात् घट, 2 स्यात् अघट, 3 स्यात् उभय, 4 स्यात् अवक्तव्य, 5 स्यात् घट और अवक्तव्य, 6 स्यात् अघट और अवक्तव्य, 7 स्यात् उभय और अवक्तव्य इन सात रूप से निरूपण किया जा सकता है । घट स्वस्वरूप से है पररूप से नहीं है। घड़े के स्वात्मा और परात्मा का विवेचन अनेक प्रकार से होता है। यथा
- जिसमें घट बुद्धि और घट शब्द का व्यवहार हो वह स्वात्मा तथा उससे भिन्न परात्मा है । स्वरूप ग्रहण और पररूप त्याग के द्वारा ही वस्तु की वस्तुता स्थिर की जाती है। यदि पररूप की व्यावृत्ति न हो तो सभी रूपों से घट-व्यवहार होना चाहिए और यदि स्वरूप ग्रहण न हो तो निःस्वरूपत्व का प्रसङ्ग होने से वह खर-विषाण की तरह असत् ही हो जायगा।
- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों का जो आधार होता है वह स्वात्मा तथा अन्य परात्मा। यदि अन्य-रूप से भी घट हो जाय तो प्रतिनियत नामादि व्यवहार का ही उच्छेद हो जायगा।
- घट शब्द के वाच्य अनेक घड़ों में से विवक्षित अमुक घट का जो आकार आदि है वह स्वात्मा अन्य परात्मा। यदि इतर घट के आकार से भी वह घट 'घट' हो जाय तो सभी घड़े एक घटरूप ही हो जायेंगे और इस तरह अनेकत्वमूलक घट-सामान्य व्यवहार ही नष्ट हो जायगा।
- अमुक घट भी द्रव्य-दृष्टि से अनेक क्षणस्थायी होता है। अतः अन्वयी मृद्द्रव्य की अपेक्षा स्थास, कोश, कुशूल, घट, कपाल आदि पूर्वोत्तर अवस्थाओं में भी घट व्यवहार हो सकता है इनमें स्थास, कोश कुशूल और कपाल आदि पूर्व और उत्तर अवस्थाएं परात्मा हैं तथा मध्यक्षणवर्ती घट अवस्था स्वात्मा है । उसी अवस्था से वह घट है क्योंकि उसी में घड़े के गुण क्रिया आदि पाए जाते हैं। यदि उन कुशूलादि अवस्थाओं में भी घड़े की उपलब्धि हो तो घट की उत्पत्ति और विनाश के लिए किया जानेवाला पुरुष का प्रयत्न ही निष्फल हो जायगा।
- उस मध्यकालवर्ती घटपर्याय में भी प्रतिक्षण उपचय और अपचय होता रहता है अतः ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से एक क्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है अतीत और अनागतकालीन उस घट की ही पर्यायें परात्मा हैं। यदि प्रत्युत्पन्न क्षण की तरह अतीत और अनागत क्षणों से भी घट माना जाय तो सभी वर्तमान क्षणमात्र ही हो जायँगे। अतीत और अनागत की तरह प्रत्युत्पन्न क्षण से भी असत्त्व माना जाय तो जगत् से घटव्यवहार का ही लोप हो जायगा।
- उस प्रत्युत्पन्न घटक्षण में रूप, रस, गन्ध, पृथुबुध्नोदराकार आदि अनेक गुण और पर्यायें हैं अतः घड़ा पृथुबुध्नोदराकार से 'है' क्योंकि घट-व्यवहार इसी आकार से होता है अन्य से नहीं । यदि उस आकार से भी घड़ा 'न' हो तो घट का अभाव ही हो जायगा।
- आकार में रूप, रस आदि सभी हैं। घड़े के रूप को आंख से देखकर ही घट के अस्तित्व का व्यवहार होता है अतः रूप स्वात्मा है तथा रसादि परात्मा। 'आंख से घड़े को देखता हूं' यहां रूप की तरह रसादि भी घट के स्वात्मा हों तो रसादि भी चक्षुर्याह्य हो जाने से रूपात्मक हो जायंगे फिर अन्य इन्द्रियों की कल्पना ही निरर्थक हो जायगी। यदि रसादि की तरह रूप भी स्वात्मा न हो तो वह चक्षु के द्वारा दिखाई ही नहीं देगा।
- शब्दभेद से अर्थभेद होता ही है अतः घट शब्द का अर्थ जुदा है तथा कुट आदि शब्दों का जुदा । घटन क्रिया के कारण घट है तथा कुटिल होने के कारण कुट। अतः घड़ा जिस समय घटन क्रिया में परिणत हो उसी समय उसे घट कहना चाहिए। इसलिए घट का घटनक्रिया में कर्त्तारूप से उपयुक्त होनेवाला स्वरूप स्वात्मा है और अन्य परात्मा। यदि इतर रूप से भी घट कहा जाय तो पटादि में भी घट-व्यवहार का प्रसङ्ग प्राप्त होगा। और इस तरह सभी पदार्थ एकशब्द के वाच्य हो जायंगे।
- घट शब्दप्रयोग के बाद उत्पन्न घट ज्ञानाकार स्वात्मा है क्योंकि वही अन्तरंग है और अहेय है । बाह्य घटाकार परात्मा है। अतः घड़ा उपयोगाकार से है अन्य से नहीं। यदि उपयोगाकार से भी अघट हो जाय तो वचन-व्यवहार के मूलाधार उपयोग के अभाव में सभी व्यवहार विनष्ट हो जायँगे।
- चैतन्य-शक्ति के दो आकार होते हैं - १ ज्ञानाकार 2 ज्ञेयाकार । प्रतिबिम्ब-शून्य दर्पण की तरह ज्ञानाकार है और प्रतिबिम्ब सहित दर्पण की तरह ज्ञेयाकार । इनमें ज्ञेयाकार स्वात्मा है क्योंकि घटाकार ज्ञान से ही घट व्यवहार होता है। और ज्ञानाकार परात्मा है क्योंकि वह सर्व-साधारण है। यदि ज्ञानाकार से घट माना जाय तो पटादि ज्ञान काल में भी घट-व्यवहार होना चाहिए। यदि ज्ञेयाकार से भी घट 'न' माना जाय तो घट-व्यवहार निराधार हो जायगा।
इस प्रकार उक्त रीति से सूचित घटत्व और अघटत्व दोनों धर्मों का आधार घड़ा ही होता है। यदि दोनों में भेद माना जाय तो घट में ही दोनों धर्मों के निमित्त से होनेवाली बुद्धि और वचन प्रयोग नहीं हो सकेंगे । अतः घड़ा उभयात्मक है। क्रम से दोनों धर्मों की विवक्षा होने पर घड़ा स्यात् घट भी है और अघट भी । यदि उभयात्मक वस्तु को घट ही कहा जाय तो दूसरे स्वरूप का संग्रह न होने से वह अतत्त्व ही हो जायगी । यदि अघट कही जाय तो घट रूप का संग्रह न होने से अतत्त्व बन जायगी। और कोई ऐसा शब्द है नहीं जो युगपत् उभय रूपों का प्रधान भाव से कथन कर सके अतः युगपदुभय विवक्षा में वस्तु अवक्तव्य है। प्रथम समय में घटस्वरूप की मुख्यता तथा द्वितीय समय में युगपदुभय विवक्षा होने पर घट स्यात् घट और अवक्तव्य है। अघट रूप की विवक्षा तथा क्रमशः युगपदुभय विवक्षा होने पर घट स्यादघट और अवक्तव्य है। क्रमशः उभय धर्म और युगपदुभय धर्मों की सामूहिक विवक्षा होने पर घट स्यादुभय और अवक्तव्य है। इस तरह यह सप्तभंगी प्रक्रिया सभी सम्यग्दर्शनादि में लगा देनी चाहिए। यदि द्रव्यार्थिक नय का एकान्त आग्रह किया जाता है तो अतत् को तत् कहने के कारण उन्मत्त वाक्य की तरह वह अग्राह्य हो जायगा । इसी तरह यदि पर्यायाथिक का सर्वथा आग्रह किया जाता है तो तत् को भी अतत् कहने के कारण असद्वाद ही हो जायगा । स्याद्वाद वस्तु के यथार्थरूप का निश्चय करने के कारण सद्वाद है । वस्तु को सर्वथा अवक्तव्य कहना भी असद्वाद है। क्योंकि इस दशा में 'अवक्तव्य' 'यह वचन भी नहीं बोल सकेंगे जैसे कि मौनव्रती 'मैं मौनव्रती हूं' यह शब्द भी नहीं बोल सकता। अतः स्यादवक्तव्यवाद ही सत्य है। हिताहितविवेक भी इसी से होता है।
6-7.
प्रश्न – यदि अनेकान्त में भी यह विधि-प्रतिषेध कल्पना लगती है तो जिस समय अनेकान्त में 'नास्ति' भंग प्रयुक्त होगा उस समय एकान्तवाद का प्रसङ्ग आ जाता है। और अनेकान्त में अनेकान्त लगाने पर अनवस्था दूषण होता है । अतः अनेकान्त को अनेकान्त ही कहना चाहिए।
उत्तर – अनेकान्त में भी प्रमाण और नय की दृष्टि से अनेकान्त और एकान्त रूप से अनेकमुखी कल्पनाएं हो सकती हैं। अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्या के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं।
- प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एक-देश को सयुक्ति ग्रहण करनेवाला सम्यगेकान्त है ।
- एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है ।
- एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों को ग्रहण करनेवाला सम्यगनेकान्त है तथा
- वस्तु को तत्, अतत् आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करना अर्थशून्य वचनविलास मिथ्या अनेकान्त है।
सम्यगेकान्त नय कहलाता है तथा सम्यगनेकान्त प्रमाण । यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का लोप किया जाय तो सम्यगेकान्त के अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह तत्समुदाय रूप अनेकान्त का भी अभाव हो जायगा। यदि एकान्त ही माना जाय तो अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्वलोप का प्रसंग प्राप्त होता है।
8. अनेकान्त छल रूप नहीं है क्योंकि जहां वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके वचन विघात किया जाता है वहां छल होता है। जैसे 'नवकम्बलो देवदत्तः' यहां 'नव' शब्द के दो अर्थ होते हैं । एक 9 संख्या और दूसरा नया । तो 'नूतन' विवक्षा से कहे गये 'नव' शब्द का 9 संख्या रूप अर्थविकल्प करके वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना छल कही जाती है किन्तु सुनिश्चित मुख्य गौण विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन करनेवाला अनेकान्तवाद छल नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें वचनविधात नहीं किया गया है अपितु यथावस्थित वस्तुतत्त्व का निरूपण किया गया है।
9-14.
प्रश्न – एक आधार में विरोधी अनेक धर्मों का रहना असंभव है अतः अनेकान्त संशय हेतु है ?
उत्तर – सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने से विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होने पर किन्तु उभय विशेषों का स्मरण होने से संशय होता है । जैसे धुंधली रात्रि में स्थाणु और पुरुषगत ऊंचाई आदि सामान्य धर्म की प्रत्यक्षता होने पर स्थाणुगत कोटर पक्षिनिवास तथा पुरुषगत सिर खुजाना कपड़ा हिलने आदि विशेष धर्मों के न दिखने पर किन्तु इन विशेषों का स्मरण रहने पर ज्ञान दो कोटियों में दोलित हो जाता है कि यह स्थाण है या पुरुष । किन्तु अनेकान्तवाद में विशेष धर्मों की अनुपलब्धि नहीं है। सभी धर्मों की सत्ता अपनी-अपनी निश्चित अपेक्षाओं से स्वीकृत है। तत्तद् धर्मों का विशेष प्रतिभास निर्विवाद सापेक्ष रीति से बताया गया है। संशय का यह आधार भी उचित नहीं है कि 'अस्ति आदि धर्मों को पृथक्-पृथक् सिद्ध करनेवाले हेतु हैं या नहीं ?
- यदि नहीं है तो प्रतिपादन कैसा ?
- यदि हैं; तो एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों की सिद्धि होने पर संशय होना ही चाहिए; क्योंकि यदि विरोध होता तो संशय होता । किन्तु अपनी-अपनी अपेक्षाओं से संभवित धर्मों में विरोध की कोई संभावना ही नहीं है। जैसे एक ही देवदत्त भिन्न-भिन्न पुत्रादि सम्बन्धियों की दृष्टि से पिता, पुत्र, मामा आदि निर्विरोध-रूप से व्यवहृत होता है। उसी तरह अस्तित्व आदि धर्मों का भी एक वस्तु में रहने में कोई विरोध नहीं है। देवदत्त यदि अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है तो सबकी अपेक्षा पिता नहीं हो सकता। जैसे कि एक ही हेतु सपक्ष में सत् होता है और विपक्ष में असत् होता है उसी तरह विभिन्न अपेक्षाओं से अस्तित्व आदि धर्मों के रहने में भी कोई विरोध नहीं है।
अथवा, जैसे वादी या प्रतिवादी के द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक हेतु स्वपक्ष की अपेक्षा साधक और परपक्ष की अपेक्षा दूषक होता है उसीप्रकार एक ही वस्तु में विभिन्न अपेक्षाओं से विविध धर्म रह सकते हैं। 'एक वस्तु अनेक धर्मात्मक है' इसमें किसी वादी को विवाद भी नहीं है । यथा -
- सांख्य सत्त्व, रज और तम, इन भिन्न स्वभाववाले धर्मों का आधार एक 'प्रधान' मानते हैं।
- वैशेषिक पृथिवीत्व आदि सामान्यविशेष स्वीकार करते हैं। एक ही पृथिवीत्व स्वव्यक्तियो में अनुगत होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादि से व्यावृत्ति कराने के कारण विशेष कहा जाता है। इसीलिए इसकी सामान्यविशेष संज्ञा है।
- बौद्ध कर्कश आदि विभिन्न लक्षणवाले परमाणुओं के समुदाय को एक रूप स्वलक्षण मानते हैं। इनके मतमें भी विभिन्न परमाणुओं में रूप की दृष्टि से कोई विरोध नहीं है।
- विज्ञानाद्वैतवादी एक ही विज्ञान को ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इस प्रकार त्रयाकार स्वीकार करते ही हैं ।
सभी वादी पूर्वावस्था को कारण और उत्तरावस्था को कार्य मानते हैं अतः एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तरपर्याय की दृष्टि से कारण-कार्य व्यवहार निर्विरोध रूप से होता ही है। उसी तरह सभी जीवादि पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक धर्मों के आधार होते हैं।