+ निक्षेपों का कथन -
नामस्थापनाद्रव्यभाव तस्तन्न्यासः ॥5॥
अन्वयार्थ : नाम, स्‍थापना, द्रव्‍य और भाव रूप से उनका अर्थात् सम्‍यग्‍दर्शन आदि और जीव आदि का न्‍यास (निक्षेप) होता है ॥५॥
Meaning : These seven fundamentals and Samyagdarsana (The Right vision) etc. are described by their name (Nama), representation (Sthapana), potency (Dravya) and state or mode (Bhava).

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

संज्ञा के अनुसार गुणरहित वस्‍तु में व्‍यवहार के लिए अपनी इच्‍छा से की गयी संज्ञा को नाम कहते हैं ।

काष्‍ठकर्म, पुस्‍तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदि में 'वह यह है' इस प्रकार स्‍थापित करने को स्‍थापना कहते हैं ।

जो गुणों के द्वारा प्राप्‍त हुआ था या गुणों को प्राप्‍त हुआ था अथवा जो गुणों के द्वारा प्राप्‍त किया जायेगा या गुणों को प्राप्‍त होगा उसे द्रव्‍य कहते हैं ।

वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्‍य को भाव कहते हैं ।



विशेष इस प्रकार है - नामजीव, स्‍थापनाजीव, द्रव्‍यजीव और भावजीव, इस प्रकार जीव पदार्थ का न्‍यास चार प्रकार से किया जाता है । जीवन गुण की अपेक्षा न करके जिस किसी का 'जीव' ऐसा नाम रखना नामजीव है। अक्षनिक्षेप आदि में यह 'जीव है' या 'मनुष्‍य जीव है' ऐसा स्‍थापित करना स्‍थापना-जीव है । द्रव्‍यजीवके दो भेद हैं - आगम द्रव्‍यजीव और नोआगम द्रव्‍यजीव । इनमें-से जो जीवविषयक या मनुष्‍य जीवविषयक शास्‍त्र को जानता है किन्‍तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है वह आगम द्रव्‍यजीव है । नोआगम द्रव्‍यजीव के तीन भेद हैं - ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्‍यतिरिक्त। ज्ञाता के शरीरको ज्ञायक शरीर कहते हैं । जीवन सामान्‍य की अपेक्षा 'नोआगम भाविजीव' यह भेद नहीं बनता, क्‍योंकि जीवनसामान्‍यकी अपेक्षा जीव सदा विद्यमान है । हाँ, पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा 'नोआगम भाविजीव' यह भेद बन जाता है,क्योंकि जो जीव दूसरी गति में विद्यमान है वह जब मनुष्‍य भव को प्राप्त करने के लिए सम्‍मुख होता है तब वह मनुष्‍य भाविजीव कहलाता है । तद्व्‍यतिरिक्त के दो भेद हैं - कर्म और नोकर्म । भावजीव के दो भेद हैं - आगम भावजीव और नोआगम भावजीव । इनमें-से जो आत्‍मा जीवविषयक शास्‍त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है अथवा मनुष्‍य जीवविषयक शास्‍त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है वह आगम भावजीव है । तथा जीवन पर्याय या मनुष्‍य जीवन पर्याय से युक्त आत्‍मा नोआगम भावजीव कहलाता है । इसी प्रकार अजीवादि अन्‍य पदार्थोंकी भी नामादि निक्षेप विधि लगा लेना चाहिए ।

शंका – निक्षेप विधि का कथन किस लिए‍ किया जाता है ?

समाधान –
अप्रकृत का निराकरण करने के लिए और प्रकृत का निरूपण करने के लिए इसका कथन किया जाता है । तात्‍पर्य यह है कि प्रकृत में किस शब्‍द का क्‍या अर्थ है यह निक्षेप विधि के द्वारा विस्‍तार से बतलाया जाता है ।

शंका – सूत्रमें 'तत्' शब्‍द का ग्रहण किस लिए किया है ?

समाधान –
सबका संग्रह करने के लिए सूत्र में 'तत्' शब्‍द का ग्रहण किया है । यदि सूत्र में 'तत्' शब्‍द न रखा जाय तो प्रधानभूत सम्‍यग्‍दर्शनादि का ही न्‍यास के साथ सम्‍बन्‍ध होता । सम्‍यग्‍दर्शनादिक के विषय-रूप से ग्रहण किये गये अप्रधान-भूत जीवादिक का न्‍यास के साथ सम्‍बन्‍ध न होता । परन्‍तु सूत्र में 'तत्' शब्‍द के ग्रहण कर लेने पर सामर्थ्‍य से प्रधान और अप्रधान सबका ग्रहण बन जाता है ।

इस प्रकार नामादिक के द्वारा विस्‍तार को प्राप्‍त हुए और अधिकृत जीवादिक व सम्‍यग्‍दर्शनादिक के स्‍वरूप का ज्ञान किसके द्वारा होता है इस बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

राजवार्तिक :

1. शब्द प्रयोग के जाति, गुण, क्रिया आदि निमित्तों की अपेक्षा न करके की जानेवाली संज्ञा नाम है। जैसे परमैश्वर्यरूप इन्दन क्रिया की अपेक्षा न करके किसी का भी इन्द्र नाम रखना या जीवनक्रिया और तत्त्वश्रद्धानरूप क्रिया की अपेक्षा के बिना जीव या सम्यग्दर्शन नाम रखना।

2. 'यह वही है' इस रूप से तदाकार या अतदाकार वस्तु किसी की स्थापना करना स्थापना निक्षेप है, यथा-इन्द्राकार प्रतिमा इन्द्र की या शतरंज के मुहरों में हाथी घोड़ा आदि की स्थापना करना।

3-7. आगामी पर्याय की योग्यतावाले उस पदार्थ को द्रव्य कहते हैं जो उस समय उस पर्याय के अभिमुख हो। जैसे इन्द्रप्रतिमा के लिए लाए गए काठ को भी इन्द्र कहना। इसी तरह जीव पर्याय या सम्यग्दर्शन पर्याय के प्रति अभिमुख द्रव्यजीव या द्रव्यसम्यग्दर्शन कहा जायगा।

प्रश्न – यदि कोई अजीव जीवपर्याय को धारण करनेवाला होता तो द्रव्यजीव बन सकता था अन्यथा नहीं ?

उत्तर –
यद्यपि सामान्यरूप से द्रव्यजीव नहीं है फिर भी मनुष्यादि विशेष पर्यायों की अपेक्षा 'द्रव्यजीव' का व्यवहार कर लेना चाहिए। आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य के भेद से द्रव्य दो प्रकार का है। जीवशास्त्र का अभ्यासी पर तत्काल तद्विषयक उपयोग से रहित आत्मा आगमद्रव्यजीव है। नोआगमद्रव्यजीव ज्ञाता का त्रिकालवर्ती शरीर, भावि पर्यायोन्मुख द्रव्य और कर्म नोकर्म के भेद से तीन प्रकार का होता है।

8-11. वर्तमान उस-उस पर्याय से विशिष्ट द्रव्य को भाव जीव कहते हैं। जीवशास्त्र का अभ्यासी तथा उसके उपयोग में लीन आत्मा आगमभावजीव है। जीवनादि पर्यायवाला जीव नोआगमभावजीव है।

12. यद्यपि नाम और स्थापना दोनों निक्षेपों में संज्ञा रखी जाती हैं। बिना नाम रखे स्थापना हो ही नहीं सकती तो भी स्थापित जिन आदि में पूजा आदर और अनुग्रहाभिलाषा होती है जबकि केवल नाम में नहीं। अतः इन दोनों में अन्तर है।

13. यद्यपि द्रव्य और भाव की पृथक् सत्ता नहीं है, दोनों में अभेद है, फिर भी संज्ञा, लक्षण आदि की दृष्टि से इन दोनों में भिन्नता है।

14-18. प्रश्न – सबसे पहिले द्रव्य का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्रव्य के ही नाम, स्थापना आदि निक्षेप किए जाते हैं?

उत्तर –
चूंकि समस्त लोक-व्यवहार संज्ञा अर्थात नाम से चलते हैं अतः संव्यवहार में मख्य हेतु होने से नाम का सर्वप्रथम ग्रहण किया है। स्तुति, निन्दा, राग-द्वेष आदि सारी प्रवृत्तियां नामाधीन हैं। जिसका नाम रख लिया गया है उसी की 'यह वही है' इस प्रकार स्थापना होती है। अतः नाम के बाद स्थापना का ग्रहण किया है। द्रव्य और भाव पूर्वोत्तरकालवर्ती हैं। अतः पहिले द्रव्य और बाद में भाव का ग्रहण किया है। अथवा भाव के साथ निकटता और दूरी की अपेक्षा इनका क्रम समझना चाहिए। भाव प्रधान है क्योंकि भाव की व्याख्या ही अन्य के द्वारा होती है। भाव के निकट द्रव्य है क्योंकि दोनों का सम्बन्ध है। इसके पहिले स्थापना इसलिए रखी गई है कि वह अतद्रूप पदार्थ में तद्बुद्धि कराने में प्रधान कारण है। उससे पहिले नाम का ग्रहण किया है क्योंकि वह भाव से अत्यन्त दूर है ।

19-25. प्रश्न – विरोध होने के कारण एक जीवादि अर्थ के नामादि चार निक्षेप नहीं हो सकते । जैसे नाम नाम ही है स्थापना नहीं। यदि उसे स्थापना माना जाता है तो उसे नाम नहीं कह सकते। यदि नाम कहते हैं तो वह स्थापना नहीं हो सकती क्योंकि उनमें विरोध है।

उत्तर –
एक ही वस्तु में लोक-व्यवहार में नाम आदि चारों व्यवहार देखे जाते हैं अतः उनमें कोई विरोध नहीं है।
  • इन्द्र नाम का व्यक्ति है।
  • मूर्ति में इन्द्र की स्थापना होती है। इन्द्र की प्रतिमा बनाने के लिए लाए गए काष्ठ को भी लोग इन्द्र कह देते हैं।
  • आगे की पर्याय की योग्यता से भी इन्द्र, राजा, सेठ आदि व्यवहार होते हैं तथा
  • शचीपति इन्द्र में भाव-व्यवहार प्रसिद्ध ही है ।
शंकाकार ने जो दृष्टान्त दिया है कि नाम नाम ही है स्थापना नहीं, वह ठीक नहीं है क्योंकि यह कहा ही नहीं जा रहा है कि नाम स्थापना है किन्तु नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से एक वस्तु के चार प्रकार से व्यवहार की बात है। जैसे ब्राह्मण मनुष्य अवश्य होता है क्योंकि ब्राह्मण में मनुष्य जातिरूप सामान्य अवश्य पाया जाता है पर मनुष्य ब्राह्मण हो न भी हो उसी तरह स्थापना 'नाम' अवश्य होगी क्योंकि बिना नामकरण के स्थापना नहीं होती परन्तु जिसका नाम रखा है उसकी स्थापना हो भी न भी हो। इसी तरह द्रव्य 'भाव' अवश्य होगा क्योंकि उसकी उस योग्यता का विकास अवश्य होगा परन्तु भाव 'द्रव्य' हो भी न भी हो क्योंकि उस पर्याय में आगे अमुक योग्यता रहे भी न भी रहे। अतः नाम-स्थापनादि में परस्पर अनेकान्त है। छाया और प्रकाश तथा कौआ और उल्लू में पाया जानेवाला सहानवस्था और बध्यघातक विरोध विद्यमान ही पदार्थों में होता है अविद्यमान खरविषाण आदि में नहीं। अतः विरोध की संभावना से ही नामादिचतुष्टय का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। विरोध यदि नामादिरूप है तो वह उनके स्वरूप की तरह विरोधक नहीं हो सकता। यदि नामादिरूप नहीं है तो भी विरोधक नहीं हो सकता। इस तरह तो सभी पदार्थ परस्पर एक दूसरे के विरोधक हो जायंगे।

26-30. प्रश्न – भाव निक्षेप में वे गुण आदि पाए जाते हैं अतः इसे ही सत्य कहा जा सकता है नामादि को नहीं।

उत्तर –
ऐसा मानने पर नाम, स्थापना और द्रव्य से होनेवाले यावत् लोकव्यवहारों का लोप हो जायगा। लोक-व्यवहार में बहुभाग तो नामादि तीन का ही है। नामाद्याश्रित व्यवहारों को उपचार से स्वीकार करना ठीक नहीं है। क्योंकि बच्चे में क्रूरता शूरता आदि गुणों का एकदेश देखकर उपचार से सिंह व्यवहार तो उचित है पर नामादि में तो उन गुणों का एकदेश भी नहीं पाया जाता अतः नामाद्याश्रित व्यवहार औपचारिक भी नहीं कहे जा सकते। यदि नामादि-व्यवहार को औपचारिक कहा जाता है तो "गौण और मुख्य में मुख्य का ही ज्ञान होता है" इस नियम के अनुसार मुख्य 'भाव' का ही संप्रत्यय होगा नामादि का नहीं। अर्थ प्रकरण और संकेत आदि के अनुसार नामादि का भी मुख्य प्रत्यय भी देखा ही जाता है अतः नामादि व्यवहार को औपचारिक कहना उचित नहीं है । "कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थों में कृत्रिम का ही बोध होता है" यह नियम भी सर्वथा एकरूप नहीं है। यद्यपि 'गोपाल को लाओ' यहां जिसकी गोपाल संज्ञा है वही व्यक्ति लाया जाता है न कि जो गायों को पालता है वह । तथापि इस नियम की उभयरूप से प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसे किसी प्रकरण के न जाननेवाले गांवडे के व्यक्ति से 'गोपाल को लाओ' यह कहने पर उसकी दोनों गति होंगी - वह गोपाल नामक व्यक्ति को जिस प्रकार लायगा उसी तरह गाय के पालनेवाले को भी ला सकता है। लोक में अर्थ और प्रकरण से कृत्रिम में प्रत्यय देखा जाता है। फिर सामान्य दृष्टि से नामादि भी अकृत्रिम ही हैं। इनमें कृत्रिमत्व और अकृत्रिमत्व का अनेकान्त है।

31-33. प्रश्न – जब नाम स्थापना और द्रव्य द्रव्यार्थिक नय के विषय हैं तथा भाव पर्यायार्थिक नय का। अतः इनका नयों में ही अन्तर्भाव हो जाता है और नयों का कथन आगे होगा ही ?

उत्तर –
विनेयों को समझाने के अभिप्राय से दो तीन आदि नयों का संक्षेप या विस्तार से कथन किया जाता है। जो विद्वान् शिष्य हैं वे दो नयों के द्वारा ही सभी नयों के वक्तव्य-प्रतिपाद्य अर्थों को जान लेते हैं उनकी अपेक्षा पृथक् कथन का प्रयोजन न भी हो पर जो मन्दबुद्धि हैं उनके लिए पृथक् नय और निक्षेप का कथन करना ही चाहिए। विषय और विषयी की दृष्टि से नय और निक्षेप का पृथक्-पृथक् निरूपण है।

34-37. यद्यपि सम्यग्दर्शनादि का प्रकरण था अतः सूत्र में 'तत्' शब्द का ग्रहण किए बिना भी सम्यग्दर्शनादि के साथ नामादि का सम्बन्ध हो जाता फिर भी प्रधान सम्यग्दर्शनादि और गौण विषयभूत जीवजीवादि सभी के साथ नामादि का सम्बन्ध द्योतन करने के लिए विशेष रूप से 'तत्' शब्द का ग्रहण किया है। 'अनन्तर का ही विधि या निषेध होता है' इस नियम के अनुसार जीवादि का ही सम्बन्ध होगा सम्यग्दर्शनादि का नहीं' इस शंका का समाधान तो यह है कि - जीवादि सम्यग्दर्शनादि के विषय होने से गौण हैं, अतः प्रत्यासन्न होने पर भी मुख्य सम्यग्दर्शनादि का ही ग्रहण किया जायगा । फिर - 'विशेष बात प्रकरणागत सामान्य में बाधा नहीं दे सकती' इस नियम के अनुसार विषय विशेष के रूप में कहे गए जीवादि पदार्थ प्रकरणागत सम्यग्दर्शनादि के ग्रहण के बाधक नहीं हो सकते ।